Uncategorized

श्मशान वैराग्य  — डॉ निर्मला शर्मा

 

किसी भी व्यक्ति या वस्तु के प्रति अत्यधिक मोह या लगाव आसक्ति है। आसक्ति का विलोम है वैराग्य । जैसे हमें किसी से आसक्ति होती है ठीक वैसे ही उसके प्रति कभी वैराग्य आ जाता है, इसे विरक्ति या अनासक्ति भी कह सकते हैं ।
इस संसार से किसी को वैराग्य कभी अनायास हो जाता है और कभी परिस्थितियों से उकताकर इंसान का मन वैराग्य की ओर बढ़ने लगता है। इस तरह से हम देखें तो वैराग्य (उदासीनता, अनासक्ति) दो प्रकार का है :–
1. कारण वैराग्य (कुछ दुखों के कारण उपजा वैराग्य)
2. विवेक-पूर्वक वैराग्य (सत्य और असत्य के बीच विवेक के कारण अनायास वैराग्य)।
जिस व्यक्ति को पहले प्रकार का वैराग्य प्राप्त होता उसका मन केवल त्यागी गई वस्तुओं को वापस पाने के अवसर की प्रतीक्षा कर रहा है। जैसे ही उसे अवसर मिलता है, व्यक्ति अपनी पूर्व स्थिति में वापस चला जाता है और वह व्यक्ति पतन को प्राप्त होता है ।एक तरह से प्रथम प्रकार के वैराग्य को ‘श्मशान वैराग्य’ भी कहा जा सकता है। जो क्षणिक समय के लिए होता है। जब परिस्थितियों वापस अनुकूल होने लगती है तब यह वैराग्य कहीं नदारत हो जाता है ।इंसान पुनः अपनी पहले वाली प्रवृत्ति में आ जाता है।
लेकिन दूसरे प्रकार का वैराग्य जो विवेक पूर्वक आता है। व्यक्ति जिसने विवेक के कारण, विषयों की मायावी प्रकृति के कारण वस्तुओं को या इंसान को छोड़ दिया है, यह आध्यात्मिक वैराग्य कहलाता है। आध्यात्मिक वैराग्य स्थाई होता है। चाहे जैसी परिस्थितियों आए इंसान अपने फैसले पर अडिग रहता है। ऐसा व्यक्ति आध्यात्मिक उन्नति करता है। उसका पतन कभी नहीं होता।
इस संसार में 95% लोगों को पहले प्रकार का वैराग्य ही आता है। ‘श्मशान वैराग्य’ ऐसा वैराग्य है जो चीता की आग ठंडी होने के साथ-साथ ही छूमंतर हो जाता है और व्यक्ति पुनः अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति में आकर उसी में लिप्त रहता है। लेकिन जब वह वैराग्य की स्थिति में रहता है तब अपने आसपास के बहुत सारे लोगों को दुःखी कर देता है। अपने कर्तव्य से दूर हो जाता है।
यह बात सही है की परिस्थितियां जब प्रतिकूल होती है या जिसे हम बहुत चाहते हैं वह व्यक्ति हमसे दूर हो जाता है तो दुनिया के प्रति, चीजों के प्रति वैराग्य होना स्वाभाविक है किंतु यदि वैराग्य होता है तो इसे स्थाई वैराग्य की तरह रखना चाहिए ।श्मशान वैराग्य की तरह का वैराग्य यदि होता है तो इंसान निंदा और हंसी का पात्र बनता हैं। इसलिए आध्यात्मिक वैराग्य न आए कोई बात नहीं लेकिन जहां तक हो ‘श्मशान वैराग्य’ से बचना चाहिए। रह वैराग्य व्यक्ति का व्यक्तित्व ही छीन लेता है।
इस तरह का वैराग्य आए दिन लोगों में आता रहता है। जैसे कुछ लोग को वैराग्य आता है कि रोज घूमने जाऊंगा किंतु एक-दो दिन बाद फिर पहले जैसी स्थिति हो जाती है ।कुछ लोगों को वैराग्य आता है की चाय छोड़ दूंगा लेकिन जैसे ही चाय सामने आती है तो वह फिर पीना शुरू कर देते हैं। कुछ लोगों को वैराग्य आता है कि धूम्रपान या शराब पीना ठीक नहीं है अब नहीं पियेंगे लेकिन जैसे ही सामने आती है वह भूल जाता है कि उसके अंदर कोई वैराग्य भी आया था।
कभी कोई अपना प्रिय व्यक्ति खो देता है तो श्मशान में बैठकर वह यही सोचता है कि यह दुनिया नश्वर है, मोह माया है ।अब मैं किसी से लड़ाई झगड़ा नहीं करूंगा, सबसे प्रेम से रहूंगा किंतु चिता की आग ठंडी पड़ने के साथ-साथ वह व्यक्ति फिर से पहले जैसा हो जाता है। कुल मिलाकर शमशान वैराग्य व्यक्ति को स्थाई नहीं रहने देता इसलिए इस वैराग्य से हमेशा बचना ही चाहिए।
कहा भी गया है कि किसी भी बात की प्रतिज्ञा न कर पाना बुरी बात नहीं है किंतु यदि प्रतिज्ञा लेते हैं और कुछ देर बाद ही उसे तोड़ देते हैं तो यह बुरी बात है।
#नटशैल – मन में क्षणिक वैराग्य लाने से अच्छा है इंसान जैसा हैं वैसा ही बना रहे । उसके लिए यही बेहतर है।

डॉ निर्मला शर्मा

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Content is protected !!