सपनों का अधूरा खेल // लेखक शेर बहादुर

राहुल जब छोटा था, तो उसके हाथों में किताबों से ज्यादा बल्ला होता था। क्रिकेट उसकी सांसों में बसा था। जब भी मोहल्ले में मैच होता, वह सबसे पहले पहुँच जाता। उसका सपना था भारतीय टीम के लिए खेलना, लेकिन समाज और परिवार की उम्मीदें कुछ और थीं।
“क्रिकेट से पेट नहीं भरता,” पापा ने एक दिन सख्त आवाज़ में कहा था। माँ ने भी समझाया, “बेटा, पढ़ाई करो, तभी जिंदगी बनेगी।” राहुल के पास कोई चारा नहीं था। मजबूरी में उसने इंजीनियरिंग चुन ली। न चाहते हुए भी उसने खुद को किताबों और लैब में झोंक दिया। धीरे-धीरे क्रिकेट एक याद बनता गया।
डिग्री के बाद नौकरी मिली, और वह घर से दूर एक नई दुनिया में चला गया। अब उसकी जिंदगी कोड, प्रोजेक्ट्स और डेडलाइनों में उलझ गई। लेकिन जब भी वह ऑफिस के बाद या वीकेंड पर मैदान देखता, दिल में फिर वही धड़कन तेज़ हो जाती। क्रिकेट अब सिर्फ एक सपना नहीं, बल्कि अधूरा प्रेम था, जिससे वह कभी अलग नहीं हो सका।
हर शाम जब भी उसे मौका मिलता, वह ऑफिस के दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलने चला जाता। बल्ला हाथ में आते ही वह फिर वही पुराना राहुल बन जाता-जो नतीजों की फिक्र किए बिना सिर्फ खेलना चाहता था। जब गेंद हवा में उड़ती, जब बल्ले से चौका निकलता, जब कैच पकड़ने के लिए वह दौड़ता-उसे लगता कि वक्त वहीं रुक गया है।
राहुल जानता था कि अब वह भारतीय टीम में नहीं जा सकता, लेकिन क्रिकेट उसके लिए सिर्फ करियर नहीं था, बल्कि उसकी आत्मा का हिस्सा था। उसने जिंदगी के साथ समझौता किया था, लेकिन अपने सपने को मरने नहीं दिया। वह जानता था कि अगर सपना पूरा न भी हो, तो भी उसे जीना बंद नहीं करना चाहिए।
क्योंकि कुछ सपने सिर्फ पूरे करने के लिए नहीं होते – कुछ सपने जीने के लिए होते हैं।
इंजी. शेर बहादुर