वो अपना गांव // प्रवीणा सिंह राणा

अपने गांव के विषय में सोचकर अपना बचपन याद आ जाता है।शहर की चकाचौंध भरी ज़िंदगी, ऊँची इमारतें, गाड़ियों का शोर और भागदौड़ भरी दिनचर्या—यह सब मेरी शादी के बाद की दुनिया थी। लेकिन इस नई ज़िंदगी में भी एक कोना मेरे मन का खाली था, वो था मेरा गाँव। शादी के बाद जब मैं पहली बार ससुराल आई, तो शहर के नियम, नई ज़िम्मेदारियाँ और व्यस्तता ने मुझे पूरी तरह घेर लिया। पर मन के किसी कोने में वो मिट्टी की खुशबू, वो कच्चे घर, और वो अपनापन अब भी बसा हुआ था।
शहर की रसोई में गैस पर खाना बनाते हुए अक्सर माँ के चूल्हे की याद आती, जहाँ लकड़ी की आँच पर रोटियों की खुशबू अलग ही होती थी। यहाँ सब कुछ व्यवस्थित था, लेकिन गाँव की उस उन्मुक्त हवा का अभाव महसूस होता था। कभी-कभी बालकनी में खड़ी होकर मैं आसमान को निहारती, लेकिन वो गाँव वाला खुला नीला आकाश कहाँ! वहाँ तो खेतों के बीच बैठकर ताज़ी हवा में साँस लेना ही अलग आनंद देता था।
त्योहार आते, लेकिन वो गाँव की तरह सामूहिक उमंग नहीं होती। वहाँ हर तीज-त्योहार पूरा गाँव एक परिवार की तरह मनाता था। मुझे याद है, कैसे छतों पर झूले पड़ते, कच्ची गलियों में रंगोली सजती और चौपालों पर देर रात तक गाने-बजाने का सिलसिला चलता। लेकिन शहर में तो त्योहार केवल अपने घर की चार दीवारों तक सीमित हो गए थे।
धीरे-धीरे मैंने खुद को इस माहौल में ढाल लिया, लेकिन मन के किसी कोने में गाँव की यादें अब भी ताज़ा थीं। जब भी ससुराल में कोई गाँव की बात करता, मैं उत्सुकता से सुनती और अपने बचपन की स्मृतियों में खो जाती।
जब भी मायके जाने का मौका मिलता तो मन में वही उत्साह जाग उठता। ट्रेन की खिड़की से बाहर झाँका, तो वही हरियाली, वही पोखर और वही मिट्टी की सौंधी खुशबू । गाँव में कदम रखते ही वो पुरानी गलियाँ, वो घर का आँगन और दादा-दादी की मुस्कान देखकर आँखें खुशी से नम हो जाती।
शादी के बाद भले ही गाँव छूट गया था, लेकिन वो यादें, वो अपनापन, और वो मिट्टी की महक दिल में हमेशा के लिए बस गई थी। वो।अपना गांव अभी भी मेरी स्मृतियों में बसा हुआ है।
प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या