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अंतर्जातीय विवाह — सुनीता तिवारी

 

विवाह को प्रेम से जोड़कर देखें,जाति से नहीं।
आज का युवा वर्ग पढ़े लिखे होने से अपने मन पसंद किरदार को जीवन
साथी के रूप में चाहता है अब उन्हें यह अधिकार देना चाहिए। अब वह समय नहीं रहा जब माता पिता अपनी बेटी को अपने हिसाब से किसी भी उम्र वाले के साथ गठबंधन में बांध देते थे और बिना बेटे बेटी के पूछे अपनी मर्जी उन पर थोप दिया करते थे भले ही उनका जीवन सुखमय न रहे।
कभी कभी तो अपने जीवन साथी का चेहरा भी बाद में ही देखने मिलता था,मन मिला तो ठीक,नहीं तो बड़ों की बदनामी होगी यह सोच
कर अपनी जिंदगी घुट घुट कर निकालते थे तथा पापा मम्मी बन कुंठाग्रस्त हो जीवन व्यतीत कर लेते थे।
वर्तमान में बच्चों में जागरूकता आई और उन्होंने अपने हिसाब से अपने जीवन साथी का चुनाव करना शुरू किया, कई बार घर वालों का विरोध दिखाई दिया यदि विरोध के बाद भी
नहीं माने तो घर से बेदखल कर दिए गए,किसी किसी समाज वाले तो बच्चों की जिंदगी तक छीन लिया करते हैं।
दो भिन्न भिन्न जातियों में विवाह को अंतरजातीय विवाह कहते हैं आज भी बहुत से समाज
बेमेल जातियों में विवाह को मान्यता नहीं देते,कारण सदियों से बनी हुई वर्ण व्यवस्था,जो कि प्राचीन काल में
कर्मानुसार सबके लिए निर्धारित थी,बच्चे अपने पुश्तैनी कार्यों को ही आगे बढ़ाते रहते थे।
समस्या यहाँ पर आती थी जैसे एक पूजापाठी घर की बेटी किसी ऐसे समाज में अपनी नासमझी से ब्याह कर बैठी जो कि उसके परिवार से बिल्कुल समानता नहीं रखता और सही तालमेल न होने से बात तलाक तक आ जाती है इन्हीं सब कारणों से अभी भी लोगों को ऐसे विवाहों को करने में बहुत सोचना पड़ता है।
मेरे विचार से जिंदगी बार बार नहीं मिलती,हम तो सिर्फ बच्चों को दुनियां में लाने वाले माध्यम होते है उन्हें पालने पोषने की हमारी जबाबदारी होती है पर हमें सही गलत समझाना है लेकिन पुरानी मान्यताएँ जो सही नहीं है उन्हें भी छोड़ना है।

सुनीता तिवारी

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