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अनुभव संगम तट का — ,विधा:संस्मरण — कविता साव

ये बात लगभग 30 या 35 वर्ष पहले की है। मकर संक्रांति का त्यौहार था। हमारे पड़ोस की सारी महिलाएं और मेरी माँ,दीदी तथा मैं अपनी सहेली उषा,सब मिलकर गंगा स्नान करने गंगाजी पहुंचे । त्यौहार का मौसम और गंगाजी के तट पर लगा मेला मतलब गहन भीड़।
सभी गंगा नहाने में व्यस्त थे। मैं और मेरी सहेली पानी में तैरना सीख रही थी।हाथ पैर चलाने की वजह से पानी छिटक रहा था।पास ही एक वृद्ध महिला सूर्य को अर्घ्य दे रही थी।उसके पूजन में हमारी वजह से खलल पड़ रहा था,महिला ने हमें डांटते हुए कहा थोड़ी दूर जाकर कूदो ना।
हम डर के मारे जाकर फिर से उछलने कूदने लगे, तभी उषा का पाँव अचानक फिसला और डूबने लगी।अचानक मेरी नजर उसपर पड़ी और मैं उसे बचाने के लिए आगे बढ़ी।बचाना क्या उसने मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया और हम साथ में डूबने लगे,लेकिन एक बात तो थी कि हमने उस मौत के घड़ी में भी एक दूजे का हाथ नहीं छोड़ा।
हम दोनों को डूबते देख ललीता दीदी जो दूर तैर रही थी,पानी के हिलकोरे अर्थात पानी को हमारी तरफ धकेलती हुई हमारे पास आ पहुंची और हम दोनों को दो चपत लगाते हुए पानी से बाहर निकाला। हम दोनों डर के मारे गंगा के किनारे खड़े थे।लेकिन मजे की बात थी कि हमने अपने घर वालों से ये बात नहीं बताई।हमें इस बात का डर था कि कहीं और मार ना पड़े, कहीं हमारा गंगा स्नान ना छूट जाए ।ये था हमारे बचपन का हुड़दंग बचपना।

कविता साव
पश्चिम बंगाल

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