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बँटवारा…अनीता चतुर्वेदी

 

गाँव के किनारे बसी हवेली, जिसकी ऊँची दीवारें और विशाल आँगन उसकी पुरानी शान का प्रमाण थीं। हवेली के दरवाजे कभी हर आने-जाने वाले के लिए खुले रहते थे, इसकी चौखट पर रिश्तों की गर्माहट थी, और दीवारें पुरखों की कहानियाँ कहती थीं। पिताजी के जमाने में यह घर खुशियों से गूँजता था, लेकिन अब इसमें केवल विवादों की गूँज रह गई थी। यह हवेली न केवल ईंट-पत्थरों से बनी थी, बल्कि इसमें कई पीढ़ियों की यादें भी बसती थीं।

रामस्वरूप जी का परिवार कभी संयुक्त था। उनके तीन बेटे—शिव, गोपाल और रमेश—एक ही छत के नीचे बड़े हुए थे। माँ के हाथों के बने पकवानों की सुगंध और बच्चों की खिलखिलाहट से यह हवेली कभी जीवंत हुआ करती थी। बचपन में तीनों भाई साथ खेलते, खेतों में भागते और रात को दादी से कहानियाँ सुनते। वे आम के बगीचे में दौड़ते, तालाब में नहाते और त्योहारों पर आँगन में दीप जलाते। उनके रिश्ते में प्रेम और स्नेह की मिठास थी, लेकिन समय के साथ परिस्थितियाँ बदलती गईं।
रामस्वरूप जी के निधन के बाद भाइयों के बीच तनाव बढ़ने लगा। पिता की जायदाद का बँटवारा कैसे हो, इस पर मतभेद गहराने लगे। शिव, जो सबसे बड़ा था, चाहता था कि सब कुछ बराबर बँटे। गोपाल को लगता था कि जिसने पिता की सेवा अधिक की, उसे ज्यादा हक मिलना चाहिए, जबकि रमेश का कहना था कि उसने हवेली की देखरेख में अधिक योगदान दिया, इसलिए उसे बड़ा हिस्सा मिलना चाहिए।

धीरे-धीरे बहसें बढ़ीं, मनमुटाव हुए, और एक दिन बात अदालत तक पहुँच गई। अब कागजों के टुकड़े तय करने लगे कि कौन कितना अपना है और कौन पराया। माँ, जो इस परिवार की धुरी थी, दिन-ब-दिन कमजोर होती गई। वह बार-बार समझाने की कोशिश करती, लेकिन अब किसी को उसके आंसुओं की परवाह नहीं थी।
गाँव के बुजुर्गों ने भी तीनों भाइयों को समझाने का प्रयास किया। उन्होंने हवेली के पुराने दिनों की याद दिलाई, जब रामस्वरूप जी पूरे गाँव की भलाई के लिए काम करते थे। उन्होंने भाइयों को एक साथ रहने की सलाह दी, मगर अब उनकी संतानें अपने स्वार्थ में डूबी थीं। हर कोई अपने हिस्से को लेकर अड़ा था।
अंततः फैसला आया—हवेली तीन हिस्सों में बाँटी गई। लेकिन इस बँटवारे ने केवल दीवारें ही नहीं खड़ी कीं, बल्कि तीनों भाइयों के दिलों में भी एक गहरी दरार बना दी। पहले जहाँ एक बड़ा आँगन था, जहाँ सब मिलकर त्योहार मनाते थे, अब वहाँ ऊँची दीवारें खड़ी हो गई थीं। बच्चों की हँसी की जगह सन्नाटा और कटुता ने ले ली थी।

अब रसोई तीन हो गई थी, चूल्हे तीन जलते थे, लेकिन उनमें पहले जैसा स्वाद नहीं था। माँ किसी भी हिस्से में पूरी तरह अपनी जगह नहीं बना सकी। वह कभी एक बेटे के घर बैठती, कभी दूसरे के, लेकिन उसकी आँखों में एक बेचैनी साफ झलकती।

बँटवारे के कुछ दिनों बाद माँ भी चल बसी। तीनों भाइयों ने अंतिम संस्कार साथ किया, लेकिन किसी ने एक-दूसरे की आँखों में नहीं झाँका। हवेली अब तीन टुकड़ों में बँट चुकी थी, और साथ ही बँट चुके थे वे बचपन के रिश्ते, जो कभी अटूट थे।
समय बीतता गया, लेकिन जब-जब वे हवेली की ओर देखते, तब-तब उन्हें अपने पिता की वह सीख याद आती—”बँटवारा घर का हो सकता है, लेकिन दिलों का नहीं होना चाहिए।” मगर अफसोस, वे यह बात तब समझे जब बहुत देर हो चुकी थी।

अब हवेली तीन हिस्सों में बँटी थी, लेकिन न उसमें पहले जैसी रौनक थी, न पहले जैसा अपनापन। तीनों भाई अपने-अपने हिस्से में रहते तो थे, लेकिन कभी-कभी छत पर खड़े होकर अतीत की उन यादों को जरूर निहारते थे, जो अब केवल यादें बनकर रह गई थीं।
और हवेली… वह अब भी वहीं खड़ी थी, गवाह बनी हुई—एक टूटते परिवार की कहानी सुनाने के लिए।

अनीता चतुर्वेदी

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