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बाहा (लघु कथा) — कविता साव

बाहा आदिवासियों का एक महत्वपूर्ण त्यौहार है। बाहा जिसका अर्थ होता है फूल।इस त्यौहार पर आदिवासी अपने ईश्वर और प्रकृति के देवता “मरांग बुरू” के प्रति आभार व्यक्त करते हैं। इस त्यौहार पर अपने आराध्य को उनके मनपसंद फूल साल और महुआ के फूल अर्पित करते हैं।ये पर्व धार्मिक,सामाजिक और सांस्कृतिक संबंधों को को मजबूत करता है। जन समुदाय के बीच सामंजस्य स्थापित करता है।
होलिका दहन के साथ ही शुरू होता है आदिवासी का ये त्यौहार जो बड़ी अनोखे तरीके से मनाया जाता है।बसंत ऋतु के समय प्रकृति खिल उठती है,प्रत्येक वृक्ष और लताएं पुष्पित पल्लवित हो उठते हैं,पूरी प्रकृति सुवासित हो उठती है।
आदिवासी प्रातःकल उठकर जाहेर थान में अपने ग्राम देवता की पूजा अर्चना करते हैं और रात्रि के समय मरांग बुरू से पूरे वर्ष अच्छी फसल और स्वस्थ शरीर की कामना करते हैं,गुहार लगाते हैं। भिक्षाटन से प्राप्त सामग्री से खिचड़ी तैयार किया जाता है और भोग के रूप में वितरण किया जाता है।सबसे खास बात ये है कि फागुन के महीने में शुरू होने वाला इस त्यौहार को रंगों से नहीं बल्कि पानी से होली खेला जाता है।
पुजारी स्त्री और पुरुष को साल और महुआ का फूल देते हैं।महिलाएं इसे गजरे की तरह अपने बालों में सजाती हैं और पुरुष इसे अपने कान पर लगाते हैं।इसके बाद शुरू होता है ढोलक के थाप पर मनमोहक नृत्य और मधुर सुरीले गीतों का सिलसिला जो आज भी मन को आकर्षित करता है।इस प्रकार बड़े हर्षोल्लास के साथ बाहा पर्व सम्पन्न होता है।

कविता साव
पश्चिम बंगाल

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