बचपन की होली — संस्मरण // कविता साव

वो दिन कितने अच्छे थे जब हम सारे बच्चे थे। नहीं थे हम पढ़े लिखे ज्यादा ना ही हमारे पास दिमाग नाम की कोई चीज थी जिसका उपयोग करके किसी की भावना को आहत कर दे।हम तो अक्ल के कच्चे थे मगर मन में कोई मेल नहीं,मन से साफ सुथरे थे।अगर था कुछ हमारे पास तो वो था केवल मस्ती और मस्ती।
होली आने के करीब दस पंद्रह दिन पहले से ही हम होली की तैयारी में जुट जाते थे।जंगल से छोटे छोटे पेड़ की टहनियों को इकठ्ठा करते, घर घर जाकर उपले मांगते और घर से दूर किसी मैदान में सारी सामग्री इकट्ठा करते। होलिका दहन के दिन हम सारे मित्र बड़े बुजुर्गों के
साथ होलिका दहन का आनंद लेते।बड़े बुजुर्ग मिलकर ढोलक, झाल, मजीरा बजाते,झूमते नाचते और फागुन के गीत गाते।
फिर दूसरे दिन शुरू होता हमारा रंगों का त्यौहार होली।
हमारे समय में पिचकारियां शायद कहीं नजर आती थी।हम तो बाल्टी में रंग घोलते और लोटे या गिलास से लोगों पर रंग उड़ेलते,खुशी मानते,शोर मचाते,
बुरा ना मानों होली है।और लोग बुरा भी नहीं मानते बस मुस्कुराकर आगे चल देते।
रंग उड़ेलने से पहले सभी आपस में धुल धूक्कड़ खेलते।
एक दूसरे के ऊपर कीचड़ डालते,गोबर का घोल डालते यहां तक कि नालियों में डुबोते हुए शोर मचाते होली है भाई होली है।सभी सद्भावना के साथ होली का त्यौहार मनाते।
शाम को स्नान करते,नए वस्त्र पहन कर हाथों में अबीर और गुलाल लेकर बाहर निकलते
और फिर शुरू होता हमारा अबीर गुलाल का खेल।बड़े बुजुर्गों के चरण पर अबीर डाल प्रणाम करते उनका आशीर्वाद लेते,हम उम्र मित्रों के गाल गुलाबी करते गले मिलते बधाईयां देते।जो भी मित्र या कोई संबंधी अबीर डालने घर आते थे उन्हें सम्मान सहित बिठाया जाता और पुआ, पूड़ी, गुजिया पकौड़े आदि खिलाकर उनका स्वागत किया जाता था।
काश कि वो दिन फिर से वापस आ जाता।जल जाती नफरत की
होली और प्रीत का रंग बरसता।मौज मस्ती के गुलाल उड़ाते जीवन को रंगीन बनाते।काश कि हम ऐसे होली मनाते।
कविता साव
पश्चिम बंगाल