भांग का रंग // अलका गर्ग

मेरा संस्मरण वाक़ई नाम के साथ सटीक बैठता है।
कोलकाता में पापा जूट मिल में ऑफ़िसर थे तो हम मिल कंपाउंड में ही रहते थे।हुगली नदी घर के सामने बहती थी तो पानी की कोई कमी नहीं थी।बड़ी ज़ोरदार होली मनाई जाती थी।
नाश्ते और खाने का भी इंतज़ाम रहता था।रंगों से सराबोर सब बीच बीच में खाते रहते थे।भांग और बिना भांग की ठंडाई भी होती थी।एक वर्ष होली में भांग मिली हुई बर्फ़ी भी रखी गई थी जिसके बारे में सभी को मालूम नहीं था।खाना देने वाले एक आदमी को कह दिया था बताने के लिए।शायद काम की अधिकता से वह सभी को नहीं बता पाया।उन लोगों ने बड़े शौक़ से स्वादिष्ट बर्फ़ी का लुफ्त उठाया।फिर तो मैदान में होली के रंग और भांग के रंग ने मिल कर ऐसा समा बाँधा कि आज भी याद करके हँसी आती है।
दो आदमी एक दूसरे की नाक टेढ़ी बता कर खूब ज़ोरों से लड़ने लगे।
एक रोने लगा कि मेरे पापा ने उसे घर जाने की लिए छुट्टी नहीं दी थी।दूसरा भी उसके आँसू पोंछते हुआ रोने लगा बोला जा आज से मैं ऑफ़िसर हूँ तुझे छुट्टी दे दी।
एक तो बीच मैदान में हाथ पाँव उठा कर लेट गया बोला पकड़ो आसमान गिर रहा है।सभी से बोलने लगा लेटो पकड़ो।
एक की हँसीं ही नहीं रुक रही थी कि उसने सासू जी को कैसे बेवकूफ बनाया और पत्नी को ले कर छत पर भाग गया।उसकी पत्नी शरमा कर चुप कर रही थी और वह तो हँसे ही जा रहा था।
कुल मिला कर हँसी,रुदन,
झगड़ा सबका मिला जुला स्वर अजीब दृश्य और आवाज़ें पैदा कर रहा था।सभी रंग खेलना भूल कर इस हास्यास्पद स्थिति का आनंद उठाने लगे।फिर एक एक को पकड़ कर घर पहुँचाया गया।अगले दिन तक वे लोग रंग में पुते गीले सोते रहे।फिर लोगों से अपनी हरकतें सुन कर शर्माते हुए बोलते रहे ..इसे कहते हैं होली के रंग भांग के संग…
अलका गर्ग,गुरुग्राम