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भारत में नारीवाद और उसकी चुनौतियाँ // राजेश कुमार ‘राज’

 

एक समय था जब विश्व में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति एक अर्धगुलाम से ज्यादा कुछ भी नहीं थी. मर्दों की तुलना में उन्हें कमतर समझा जाता था. कतिपय मातृसत्तात्मक समुदायों को छोड़ दिया जाये तो महिलाओं को सम्पत्ति का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, मताधिकार इत्यादि तक प्राप्त नहीं थे. घर से बहार निकल कर आजीविका कमाने का अधिकार तो कल्पना से परे की बात थी. कुल मिलकर उन्हें किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता, समानता और नागरिक अधिकार प्राप्त नहीं थे. भारत में यदि आदिवासी समाज, जिसमें महिलाएं तुलनात्मक रूप से ज्यादा अधिकार संपन्न हैं, को अलग कर दें तो स्त्रियों की दशा और दिशा शोचनीय और विचारणीय थी. औरत को एक भोग्या, संतानोत्पत्ति का साधन और पुरुष की दासी मान कर उसके साथ हेय व्यवहार किया जाता था. एक स्त्री की निर्भरता आजीवन एक पुरुष के ऊपर निश्चित कर दी गयी थी.

भारतीय परिपेक्ष में देखें तो महिला अधिकारों की आवाज पराधीन भारत में अंग्रेजी राज के दौरान उठनी शुरू हो गयी थी जब सन् १८२८ में राजा राम मोहन राय ने बंगाल में ब्रह्म समाज की स्थापना कर समाज में व्याप्त स्त्री विरोधी कुरीतियों, जैसे सती प्रथा, का पुरजोर विरोध करना शुरू किया. उनके विरोध और जागरूकता अभियान के फलस्वरूप भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक ने सन् १८२९ में कानून बनाकर सम्पूर्ण देश में सती प्रथा पर प्रतिबन्ध लगाया. उधर महाराष्ट्र के पुणे शहर में फुले दंपत्ति, महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले, सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध और महिला शिक्षा के लिए अलख जगा रहे थे. कालांतर में महात्मा ज्योतिबा फुले, उनकी धर्पपत्नी सावित्री बाई फुले और उनकी एक पारिवारिक मित्र तथा देश की प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षक फातिमा शेख के संयुक्त प्रयासों से देश का प्रथम महिला विद्यालय सन १८४८ में पुणे के भिडेवाडा में स्थापित हुआ. इस से पूर्व महिलाओं की औपचारिक शिक्षा के लिए कोई भी शिक्षा संस्थान उपलब्ध नहीं था. यही वह ऐतिहासिक बिंदु था जहाँ से हमारे देश में महिला अधिकारों की सुग्बुगाहत शुरू हुई.

दुनियां में भारत पहला ऐसा देश बना जिसने २६ जनवरी १९५० के दिन गणतांत्रिक प्रजातंत्र बनते ही कानूनन महिलाओं सहित देश के प्रत्येक नागरिक को धर्म, संप्रदाय, पंथ, भाषा, क्षेत्र और लिंगादि के भेदभाव के बिना समान अधिकार प्रदान किये. सन १९५२ में महिलाओं को भी पुरुषों के समकक्ष मताधिकार दिया गया. हिन्दू कोड बिल के जरिये महिलाओं को अधिकार संपन्न कर सदियों की शोषणकारी पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था को एक झटके में महिलाओं के समर्थन में बदल कर रख दिया गया. जबकि अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेत महिलाओं को मताधिकार प्राप्त करने के लिए सन १९६४ तक और स्विट्ज़रलैंड की महिलाओं को १९७१ तक इंतजार करना पड़ा था. हालाँकि भारत में आज भी सरकारी तंत्र में व्याप्त पुरुषवादी मानसिकता के कारण महिला सशक्तिकरण के कानूनों के निष्पक्ष क्रियान्वयन की समस्या बनी हुई है जिसकी वजह से असंख्य महिलायें या तो अपने अधिकारों से वंचित रह जाती हैं या प्रताड़ना झेलने को मजबूर हैं.

अब बात कर लेते हैं नारीवाद की चुनौतियों की. देश में एक तरफ जहाँ नारीवादी आन्दोलन दिन-प्रतिदिन सशक्त बनता जा रहा है, वहीँ दूसरी तरफ महिला उत्पीड़न विरोधी कानूनों का कतिपय महिलाओं द्वारा दुरूपयोग भी किया जा रहा है जो पुरुष वर्ग में बेचैनी का सबब बना हुआ है. अभी हाल ही में ऐसे कुछ मामले प्रकाश में आये हैं जिनमें कथित पीड़ित महिलाओं और उनके परिजनों ने दहेज़ विरोधी और महिला उत्पीड़न विरोधी कानूनों की आड़ में अपने ससुराल पक्ष विशेषकर अपने पतियों को कथित रूप से झूठे मुकद्दमों में फंसा कर इस हद तक प्रताड़ित किया कि उन बेचारों के सामने आत्महत्या करने के अतिरिक्त कोई और रास्ता बचा ही नहीं था. इस प्रकार की घटनाएँ समूचे नारीवादी आन्दोलन को ही कटघरे में खड़ा कर देती हैं और समाज, राज्य तथा न्यायपालिका को इसे एक नए नजरिये से देखने के लिए मजबूर करती हैं. यहाँ यह स्पष्ट कर देना अत्यावश्यक है कि आज भी महिला उत्पीड़न के जो मामले प्रकाश में आते हैं उनमें से अधिकांशतः सच्चे और वास्तविक ही होते हैं. महिलाओं का एक नगण्य सा भाग है जो इन कानूनी प्रावधानों का दुरूपयोग करता प्रतीत होता है. इसमें आधुनिक डिजिटल प्रचार माध्यमों की भी एक भूमिका है जिसकी वजह से ऐसी एक-दो नगण्य सी घटनायें कुछ ही मिनटों और घंटो में मीडिया की सुर्खियाँ बटोर लेती हैं. नतीजतन नारीवादी आन्दोलन की साख को बट्टा लगता है और महिलाओं की विश्वसनीयता भी संदेह के घेरे में आ जाती है. इन छुटपुट घटनाओं के बाद भी महिला सशक्तिकरण और महिला उत्पीड़न विरोधी कानूनों की प्रासंगिकता पर अभी तक किसी प्रश्न चिन्ह की कोई गुंजाईश दिखाई नहीं है.

दूसरी चुनौती यह है कि आज के दौर की महिला प्रत्येक क्षेत्र; जमीन से लेकर समुद्र तक, समुद्र से लेकर पहाड़ों तक और पहाड़ों से अंतरिक्ष तक; पुरुषों का मुकाबला कर अपनी दक्षता और पुरुष वर्ग के समक्ष अपनी समानता प्रमाणित कर रही हैं. तथापि प्रकृति ने महिला और पुरुष की शारीरिक संरचनाएं किसी विशेष उद्देश्य से पृथक-पृथक की हैं. आज की महिला शासन, प्रशासन, पुलिस, सेना, विज्ञानं और तकनीकी के क्षेत्रों में अपनी योग्यता का लोहा मनवा रही है. दुर्गम क्षेत्रों में मर्दों के साथ मिलकर देश की सेवा और सुरक्षा कर रही है. तथापि अपनी कुछ शारीरिक भिन्नताओं और लिंगाधारित पृथक आवश्यकताओं के कारण उन्हें अतिरिक्त दुश्वारियां तो उठानी ही पड़ती हैं क्योंकि एक महिला को प्रकृति ने अलग हेतु से एक अलग प्रकार का शरीर दिया है. शारीरिक संरचना के स्तर पर पुरुष से मुकाबला भी नारीवादी आन्दोलन के लिए एक चुनौती है. आज की नारी इस चुनौती से निपटने में सक्षम प्रतीत होती है.

भारत के वास्तविक नारीवादी आन्दोलन के सामने अगली और सबसे अहम् चुनौती खुद उसके बीच से ही आती है. वो है छद्म नारीवाद. छद्म नारीवाद कोई अकेली चुनौती नहीं है बल्कि यह चुनौतियों का एक पेन्डोरा बॉक्स है. छद्म नारीवादी महिलाएं पितृसत्तात्मक व्यवस्था से नारी मुक्ति के लिए वो सारे उल जलूल रास्ते अपना रही हैं जिनसे महिलाओं की गरिमा और प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचती है. पुरुषोचित व्यवहार और पश्चिम के अन्धानुकरण को ही यें नारी-सशक्तिकरण का माध्यम या प्रतीक मानती हैं. इनके लिए परिवार कैदखाना, रिश्ते और परम्पराएँ बेड़ियाँ और पुरुष मात्र एक शोषक होते हैं. ऐसी महिलाएं स्वतंत्रता और स्वछंदता के बीच के महीन अंतर को समझ ही नहीं पातीं या समझना नहीं चाहतीं. समान अवसर नहीं अपितु अवसर से लाभ चाहती है. सम्मान नहीं बल्कि अभिमान भरा जीवन जीने को प्राथमिकता देती हैं. अतः छद्म नारीवादियों के लिए मद्यपान करना, पार्टी एनिमल बन जाना, वन नाईट स्टैंड (पार्टी आदि में मिले किसी अनजान मर्द के साथ एक रात की हमबिस्तरी), ड्रग्स का सेवन करना, सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स पर भोंडा व अश्लील अंग प्रदर्शन करना इत्यादि प्रगतिशील होने की निशानी बन गए हैं. यहाँ मेरा यह मंतव्य कदापि नहीं है कि ऐसा आचरण केवल महिलाओं के लिए ही अवांछनीय है बल्कि मर्दों के लिए भी यह सब वर्जनीय है. मैं यहाँ, महिलाओं की कपड़ों की पसंद, खाने पीने की पसंद, प्रेमी या जीवन साथी चुनने की पसंद आदि पर किसी तरह का भी अंकुश लगाने या किसी के द्वारा उनपर पसंद थोपने का पक्षधर बिलकुल नहीं हूँ. इन मामलों में महिलाओं को अपनी पसंद को जीवन में अपनाने की स्वतंत्रता होनी ही चाहिए. मैं उन्हीं दुर्गुणों की बात कर रहा हूँ जो एक स्त्री और उसके परिवार को अत्यधिक दुष्प्रभावित करते हैं. एक स्त्री के इस दलदल में धंसने से परिवार की जो हानि होती है उसके बड़े दूरगामी परिणाम होते हैं. स्त्री परिवार की धुरी होती है. अपनी आने वाली पीढ़ियों को सुसंस्कारित करने की बड़ी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी उस ही के कन्धों पर होती है. अतः एक महिला के लिए अपने आचरण को अनुकरणीय बना कर रखने की आवश्यकता है. महिलाओं से मेरी यह अपील है कि वें छद्म नारीवादी विचारधारा से प्रभावित होकर मर्दों से बराबरी की अंधी दौड़ में शामिल ना हों और अपने जीवन को कुटेवों से ग्रसित होने से बचाएं. पुरुषों के साथ एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करें ना कि उन्हें अपना शत्रु समझें क्योंकि नारी-सशक्तिकरण के क्षेत्र में आज महिलाओं ने जो कुछ भी उलब्धियाँ प्राप्त की हैं, उनके नेपथ्य में पुरुष वर्ग द्वारा किये गए प्रयासों और समर्थन का एक लम्बा इतिहास है. याद रहे की सतीप्रथा के विरुद्ध आवाज किसी महिला ने नहीं उठाई थी बल्कि एक पुरुष राजा राम मोहन राय ने इसके उन्मूलन का बीड़ा उठाया था. छद्म नारीवादी अवधारणा महिलाओं के लिए किसी भी रूप में कल्याणकारी नहीं है.

अपनी अस्मिता से समझौता किये बिना भी आज की नारी पुरुष को हर क्षेत्र में टक्कर देने में सक्षम है. तथापि उसे नारीवाद की एक ऐसी परिभाषा गढ़नी पड़ेगी जो उसे वास्तविक समान अवसर और सम्मान के शिखर तक ले जा सके. वह पुरुष को अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं बल्कि साथी समझे ताकि पुरुष भी उसके प्रति और अधिक सहृदय बन सके. आशा है कि हमारी भारतीय महिलाएं पुरुषों के साथ दैहिक समानता के चक्कर को छोड़ सच्ची नारीवादी सोच को अपना कर अपने परिवारों, समाज और देश की उन्नति में अपना योगदान देंगीं.
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