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होलिका दहन/ संस्मरण– सुनीता तिवारी

 

एक माह पहले से हम सभी शरारती बच्चे लकड़ियां इकठ्ठी करते।
किसी का गेट उखाड़ते किसी की कुर्सी चुराते।
किसी का लकड़ी का झूला खटिया सभी जुगाड़ते।
जहाँ भी गाय भैंस दिखती उसका गोबर ले आते और सातों भाई बहन मिल कर बल्ले बनाते।
उनको सुखाते, सूख जाने पर माला बनाते।
बहुत इंतज़ार के बाद होलिका दहन का दिन आ जाता।
सुबह से घर की सफाई होती और जिस स्थान पर होली जलती वहाँ पर गोबर से लिपाई होती।
चौक पूरा जाता।
उस दिन घर में गुड़ और नारियल की गुजिया बनती।
रात में होली जलाने के लिए लकड़ियों का टाल बना दिया जाता।
फिर मुहूर्त से पूजा अर्चना आरती करके कपूर रखकर होलिका दहन किया जाता।
सबके बराबर का कच्चा सूत नापकर डाला जाता।
सभी होलिका की परिक्रमा करते फिर गुलाल लगाकर एक दूसरे का आशीर्वाद लेते।
गेहूँ की बालियां होलिका में सेंकी जाती।
कुछ लोग फाग गाते और ढोलक की थाप पर थिरकते।
सारी बुराईयां होलिका में जल जाती।
सभी एक दूसरे को बधाई देकर घर लौटते।
अब कम्प्यूटराइज युग में लोग टी वी में होलिका दहन देख कर खुश हो जाते।
घर के पकवानों से गुरेज करते पारंपरिक पकवानों को ओल्ड फैशन और ऑयली बताकर खाने से मना कर देते।
आज के बच्चे बाहर से भोजन करके आते।
विशेष कर त्योहारों का चलन सिर्फ फोटो पोस्ट करने या एक दूसरे को दिखाने के लिए ही रह गया है।

सुनीता तिवारी

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