क्या साहित्य शाश्वत होता है? क्या कोई साहित्य अपनी रचना काल के १०० बीत जाने पर भी उतना ही प्रासंगिक रहता है? –राजेश कुमार ‘राज’

इस संसार में हर वस्तु चाहे सजीव हो या निर्जीव सबका एक जीवनकाल होता है. जैसे शास्त्रों के अनुसार मनुष्य का जीवनकाल १०० वर्ष का माना गया है. इसी लिए प्राचीन काल से १०० वर्ष तक जीने का आशीर्वाद (जीवेत शरदः शतम्) देने की परंपरा चली आ रही है. इसी क्रम में अन्य सभी प्राणियों, जैसे पशु-पक्षी, वनस्पति, भवन इत्यादि के अपने अलग-अलग जीवनकाल हैं. तात्पर्य यह है कि प्रत्येक प्राणी और वस्तु नश्वर हैं.
केवल एक ही तत्व है जो नाशवान नहीं है या यूँ कहें कि शाश्वत है. यह तत्व है शब्द और इनमें अभिव्यक्त साहित्य. साहित्य शाश्वत है. जब तक हमारी सभ्यता-संस्कृति का अस्तित्व है तब तक हमारा साहित्य भी जीवित रहेगा. मनुष्य संसार को त्याग कर परलोक चला जाता है परन्तु शब्दों के रूप में विद्यमान उसकी अभिव्यक्तियाँ कभी नहीं मरतीं. अतः साहित्य रहती दुनिया तक अजर, अमर और शाश्वत है.
हमारे चार वेद साहित्य के शाश्वत गुण के सबसे दृढ परिचायक हैं. हमारी धार्मिक मान्यता अनुसार वेद प्राचीनतम धार्मिक व आध्यात्मिक साहित्यिक रचनाएँ हैं. इसके अतिरिक्त, उपनिषद्, पुराण, वाल्मीकि रामायण, महाभारत तथा विभिन्न संहिताएँ अपने प्राचीन और शाश्वत होने का प्रमाण देती हैं. कौटिल्य का अर्थशास्त्र, वात्स्यायन का कामसूत्र, बाण भट्ट रचित कादम्बरी और कालिदास रचित सभी प्रसिद्ध नाटकों का आज भी मौजूद होना साहित्य के शाश्वत होने का प्रमाण हैं.
मध्यकाल में भक्ति साहित्य का जमकर सृजन हुआ. तुलसीदास कृत रामचरित मानस, कबीर दास द्वारा लिखित दोहे, शबद और साखी; सूरदास रचित सूरसागर, सूरसावली, सूरपचीसी आदि; मीराबाई और रसखान के पद, रैदास की वाणी, रहीम (अब्दुर्रहीम खानखाना) के दोहे, मलिक मुहम्मद जायसी रचित पद्मावत इत्यादि ऐसे साहित्यिक सृजन हैं जो लगभग कई सदियों से जीवित हैं और पढ़े जा रहे हैं.
अब रही बात १०० वर्ष पश्चात् भी साहित्य की प्रासंगिकता की तो मै यह विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि अधिकांश साहित्य अपने रचना काल के १०० वर्ष बीत जाने पर भी उतना ही प्रासंगिक रहता है जितना लिखे जाते समय था. कबीर दास द्वारा रचित साहित्य आज भी हमें निर्गुण-निराकार की भक्ति करने और पाखंड त्यागने के लिए प्रेरित करता है. वहीँ रसखान और मीरा बाई के पद हमें कृष्ण भक्ति में आज भी सराबोर कर देते है. मेरा मानना है कि जब तक यह संसार अस्तित्व में है तब तक साहित्य शाश्वत और प्रासंगिक ही रहेगा क्योंकि मानव के मूलभूत गुण-दुर्गुण आज भी वही हैं जो सृष्टि की रचना के समय रहे होंगे. अतः हमारे ऋषि-मुनियों, समाज सुधारकों, भक्तों, कवियों, लेखकों आदि द्वारा रचित साहित्य सदैव प्रासंगिक रहेगा. बदलते समय के साथ मनुष्य संस्कारित तो होता है लेकिन उसके गुण-धर्म, आवश्कताएँ और कमजोरियां नहीं बदलती हैं. अतः उसके पूर्वजों द्वारा रचित साहित्य उसे प्रत्येक काल और परिस्थिति में प्रेरणा प्रदान करता है.