लघु कथा—पोखर __ मैत्रेयी त्रिपाठी

पोखर…जल का स्त्रोत,सागर से छोटी नदी ,नदी से छोटा तालाब और तालाब से छोटा पोखर, जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा …आप सोच रहे होंगे अस्तित्व की लड़ाई तो नदी और तालाब भी लड़ रहे है,और हा पानी ने भी हा हा कार मचा रक्खा है,पर हमारा शीर्षक है …..
“पोखर” आज मिलते है पोखर से जो कभी ग्रामीण परिवेश की धुरी हुआ करता था , जल के उपयोग और जल संरक्षण दोनों कार्यों को करता था यह, सिंचाई से लेकर पशुओं को नहलाना तथा उनके पीने का पानी, धोबी द्वारा कपड़े धुलने का काम सारा इसी पोखर से हुआ करता था
पोखर की सफाई रहती थी बड़ी चहल पहल रहती थी इसके किनारे छोटे गावों में भी तीन ,चार पोखर(पोखरा या पोखरी) हुआ करते थे,
ये तो हुई पोखर के संबंध में थोड़ी जानकारी……
अब मेरी कलम से पोखर की कहानी… प्रकृति की गोद में बसा मेरा छोटा सा गांव जो गाजीपुर उत्तर प्रदेश जमानियां तहसील के अंतर्गत आता है , वहा दो ताल और दो पोखर हुआ करते थे जी हां वर्ष २००० तक अब वह सिर्फ सरकारी कागज़ पर ही ताल और पोखर हैं,ये मेरे ही गांव की कहानी नही है ये अब हर गांव की कहानी हो गई है,अब पोखर सिर्फ कूड़ेदान बन कर रह गया है, लोगो के लालच ने उनसे क्या छीना है शायद उसका उन्हें भान भी नही हैं……मुझे भी नही था और शायद कभी होता भी नही।
मेरे बाबा जिन्हे प्रकृति और परशुराम जी दोनो से बहुत प्रेम था सुबह मंदिर जाना उसकी साफ़ सफ़ाई करना रास्ते में आते जाते पेड़ो को पानी देना उनके किनारे लगे घास साफ करना और चिटियों को सत्तू खिलाना नित्य का कर्म था उनका, जो कोई द्वार पर आता सबको बगीचे पेड़ और परशुराम जी का जन्म हमारे जमानियां में हुआ है बताना ना भूलते । उनसे मैं लड़ती भी थी और उनके सारे काम भी करती थी और उनकी लाठी भी खाती थी।
एक दिन यूं ही वह उदास बैठे थे मैने पूछ लिया क्या हुआ..?….सजल नेत्रों से बोले ….अब गांव में पोखरी भराए लागल अब ताल पोखरी ना बची ।
मैंने भी अपना महाज्ञान उड़ेल दिया….कोई बात नही हमारे पास हैंडपंप है , हमे क्या चिंता…..
बाबा बोले …अरे हैंडपंप प्यास बुझाएगा आग थोड़े ना बुझाएगा
आग….. सही तो कह रहे थे “आग “हर गर्मी में लगती तो है किसी न किसी के घर में , पशुओं के बाड़े में ,खेत में
खलिहान में ……और तब सभी उसी पोखर की तरफ दौड़ते दिखाई देते थे ।
फिर भी मैं कहा पांडित्य उड़ेलने से बाज आने वाली थी ..
मैंने भी कह दिया …कोई नही फायर ब्रिगेड बुला लेंगे
बाबा हँस दिए और मैं देखती रही उनको और मानस पटल पर गांव से जमानियां के रोड का चित्र उकेरने लगी ..यकीन मानिए रोड कम गड्ढा ज्यादा दिखा
और मन प्रभु के चरणों में चला गया ।
अब बाबा भी नही है और पोखर भी नही है
पर मेरे मन का द्वंद अभी भी वही है ।
मैत्रेयी त्रिपाठी
स्वरचित