लकड़हारे की ईमानदारी — राजेन्द्र परिहार

एक लकड़हारा बहुत ही गरीब था और जंगल से सूखी लकड़ियां काटकर उन्हें बस्ती में बेचकर अपना व परिवार का गुजर बसर करता था।
एक दिन नदी किनारे वो एक सूखे पेड़ से शाखाएं काट रहा था कि अकस्मात् उसकी कुल्हाड़ी नदी में गिर गई।
चूंकि नदी बहुत गहरी थी और लकड़हारे को तैरना भी नहीं आता था।
वो बहुत उदास हुआ और नदी किनारे चट्टान पर बैठ कर आंसू बहाने लगा।
इतने एक देवदूत आम आदमी के वेष में प्रकट हुआ और उस लकड़हारे से उदासी का कारण पूछा। लकड़हारे ने रोते हुए ही सारी दास्तान उस देवपुरुष से कह दी।
देवपुरुष बोला उदास मत हो, मैं कुछ कोशिश करता हूँ यह कहकर वो नदी में उतर गया।
थोड़ी देर में वो एक चांदी की कुल्हाड़ी लेकर प्रकट हुआ और लकड़हारे से पूछा यही तो नहीं है आपकी कुल्हाड़ी।
लकड़हारे ने मना कर दिया “नहीं यह कुल्हाड़ी मेरी नहीं है” देवपुरुष ने फिर गोता लगाया और सोने की कुल्हाड़ी लेकर प्रकट हुआ, बोला यह तो नहीं है आपकी कुल्हाड़ी, लकड़हारे ने साफ मना कर दिया कि नहीं महाशय यह कुल्हाड़ी मेरी नहीं है।
देव पुरुष अब की बार लोहे की कुल्हाड़ी लेकर प्रकट हुआ।
यह तो नहीं है आपकी कुल्हाड़ी, लकड़हारे ने तुरंत हामी भर दी “हां महाशय! यही है मेरी कुल्हाड़ी। आपका लाख लाख शुक्रिया अदा करता हूं। उसकी बात सुनकर और
उसकी ईमानदारी से प्रसन्न होकर वो तीनों कुल्हाड़ियां उसको देते हुए बोले “मैं तुम्हारी ईमानदारी से बहुत प्रसन्न हुआ हूं ये तीनों कुल्हाड़ियां आप रख लीजिए।
यह आपकी ईमानदारी का पुरस्कार है मेरी तरफ से, यह कहकर देवपुरुष अन्तर्ध्यान हो गया।
राजेन्द्र परिहार “सैनिक”