मां का पल्लू — शिखा खुराना

छोटी गुड़िया को सुबह की पहली किरणों से पहले ही जागने की आदत थी। लेकिन उसकी नींद के साथ उसकी आँखों में आंसू भी जाग जाते थे, क्योंकि जब भी वह उठती, उसकी माँ घर पर नहीं होती। माँ को काम पर जाना पड़ता था, पर नन्हीं गुड़िया के लिए यह समझना मुश्किल था कि माँ क्यों चली जाती है।
हर सुबह वही कहानी दोहराई जाती—वह जागती, माँ को न पाकर रोती, और फिर घर की दीवारों से लिपटकर अपनी सिसकियों को सांत्वना देने की कोशिश करती। एक दिन उसने एक छोटी-सी तरकीब निकाली। उसने रात को माँ की साड़ी का पल्लू कसकर पकड़ लिया और सो गई। उसे लगा कि इस तरह माँ उससे दूर नहीं जा पाएगी। लेकिन जब सुबह हुई, उसका नन्हा हाथ खाली था, और माँ जा चुकी थी।
वक्त बीतता गया, गुड़िया बड़ी होती गई। अब वह रोती नहीं थी, लेकिन हर सुबह का खालीपन उसके मन में एक अनकही उदासी छोड़ जाता। फिर एक दिन, माँ सच में उसे हमेशा के लिए छोड़कर चली गई। इस बार, न तो उसकी चीखों ने माँ को रोक पाया, न ही उसका पकड़कर रखा हुआ कोई पल्लू उसे लौटा पाया।
उस दिन के बाद से, उसकी सुबह कभी नहीं हुई। वह हर दिन जागती तो थी, पर वह उजाला नहीं था—बस एक अधूरा, उदास सा सवेरा, जिसमें माँ की यादें ही उसकी धूप बनकर उसे सहारा देती थीं।
शिखा