मेरी लेखनी को स्वीकृति मिली — ,शिखा खुराना

बचपन से ही मेरी लेखनी कागज़ काले करने लगी थी। शब्दों से खेलने का यह शौक मुझे स्वाभाविक रूप से मिला था, लेकिन इसकी सराहना करने वाला कोई नहीं था। मेरी माँ एक अध्यापिका थीं, और उस समय केवल पाठ्यक्रम पढ़ने और अच्छे अंक लाने वाले विद्यार्थियों को ही महत्त्व दिया जाता था। स्वाभाविक था कि मुझे मेरे लेखन के लिए कभी प्रोत्साहन नहीं मिला, बल्कि अक्सर डांट ही सुननी पड़ी।
जैसे-जैसे मैं किशोरावस्था में पहुँची, मेरी रुचि शायरी की ओर बढ़ने लगी। धीरे-धीरे मैं छुप-छुपकर इश्क़ और रोमांस पर कविताएँ और शायरी लिखने लगी। जिस दिन माँ से अधिक डांट पड़ती, उस दिन मेरे शब्द ग़मगीन शायरी में ढल जाते। मेरे लिए यह भावनाएँ व्यक्त करने का एक साधन था, लेकिन माँ के लिए यह सिर्फ समय की बर्बादी थी।
फिर एक दिन एक दिलचस्प घटना घटी। माँ को अपने स्कूल के एक सेमिनार में जाना था, जहाँ उन्हें “गणित इतना नीरस विषय क्यों?” पर कुछ लिखना था। लेकिन व्यस्तता के कारण उन्हें लिखने का समय ही नहीं मिल रहा था। माँ की परेशानी देखकर मैंने उनकी मदद करने का निश्चय किया। पूरी रात जागकर मैंने इस विषय पर एक कविता लिखी। सुबह जब डरते-डरते वह कविता माँ को सौंपी, तो पहली बार उन्होंने मेरी लेखनी को सराहा। सेमिनार में माँ ने वही कविता सुनाई, और यह सुनकर सभी ने सराहना की।
वह पहली रचना, जिसने मेरी माँ के मन में मेरे लेखन के लिए स्वीकृति की भावना जगाई, यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ—
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हाय रे गणित
पाँच गुना तीन हमने पंद्रह पढ़ा,
एक का हासिल डंडा लिए था खड़ा।
तीन गुना तीन करके हासिल को जोड़ो,
नए हासिल को ऊपर रख, पुराने को तोड़ो।
इस तरह जोड़ते-घटाते हाथ सर्द हो गया,
सवाल हुआ गलत, सर में दर्द हो गया।
सारे लुत्फ़ छूमंतर हो जाते हैं,
जब बीजगणित के सूत्र याद नहीं आते हैं।
त्रिकोणमिति तो ऐसी घुमा जाती है,
समझते-समझते नानी याद आ जाती है।
ज्यामिति में क्षेत्रफलों को आंकना,
कैसे होगा आकार को अंकों में बांटना?
भूगोल का पूरब-पश्चिम पढ़कर आता है मज़ा,
इतिहास और साहित्य से सीना चौड़ा हो ही जाता है।
अंग्रेज़ी में नयापन मिलता है,
गणित पढ़ते ही पढ़ाई का रस चला जाता है।
कला के प्रेम में संख्याएँ कहाँ आती हैं?
हुनर के प्रेमियों को गणना नहीं भाती हैं।
अमिताभ जैसे कलाकार को मार गिराया,
उसने ‘दो और दो पाँच’ कहा,
गणित ने चार कर दिखाया!
उस दिन माँ की आँखों में मेरे लिए जो गर्व और संतोष दिखा, वह मेरे लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं था। यह मेरी पहली स्वीकृति थी, मेरी पहली पहचान थी—और यह अहसास मुझे आज भी गर्व से भर देता है।
शिखा©®