मोहल्ले दारी // प्रवीणा सिंह राणा

हमारे समाज की सबसे खूबसूरत परंपराओं में से एक है मोहल्लेदारी। ये सिर्फ पड़ोस में रहने का रिश्ता नहीं होता, बल्कि एक ऐसा आत्मीय बंधन होता है जो अनकहे ही दिलों को जोड़ देता है। मेरे जीवन में भी मोहल्लेदारी का एक अनमोल अनुभव है।
बचपन की वो गलियां याद हैं, जहाँ हर घर अपना-सा लगता था। किसी के घर चीनी खत्म हो जाए तो दूसरे के घर से आ जाती, किसी के यहाँ मेहमान आ जाएं तो बगल वाले के घर से कुर्सियाँ आ जातीं। शाम को घरों के आंगन मिलकर खेल के मैदान बन जाते और अचार, पापड़ सब मोहल्ले की छतों पर एक साथ सूखते।
एक बार की बात है, मोहल्ले में किसी के घर शादी थी। पूरा मोहल्ला जैसे एक बड़े परिवार में बदल गया था। किसी ने मेहमानों के ठहरने की व्यवस्था कर दी, तो किसी ने हलवाई के लिए बरतन जुटा दिए। हम बच्चे भी पीछे नहीं थे—मिलकर तोरण सजाते, फूलों की मालाएं गूंथते और घर-घर न्योता देने जाते। शादी के दिन सबने मिलकर ऐसे तैयारियाँ कीं कि मानो यह उनके अपने घर की बेटी की शादी हो।
पर मोहल्लेदारी का असली रंग तब दिखा जब हमारे घर एक कठिन समय आया। पिताजी बीमार पड़ गए और घर में आय का कोई जरिया न था। मोहल्लेवालों ने बिना कहे मदद का हाथ बढ़ाया। कोई राशन लेकर आया, तो किसी ने दवाइयों का खर्च उठा लिया। एक दिन पिताजी के दोस्त कहने लगे, “हम सब हैं न, चिंता मत करो।” उन शब्दों ने हमारे दिलों में जो सुकून दिया, वो आज भी महसूस होता है।
आज समय बदल रहा है। बड़े-बड़े अपार्टमेंट आ गए, दरवाजों पर डिजिटल लॉक लग गए, और मोहल्लेदारी धीरे-धीरे सिमटने लगी है। अब न वो चौपालें लगती हैं, न ही कोई पड़ोसी दूसरे के घर बेझिझक चला जाता है। लेकिन मेरा मानना है कि मोहल्लेदारी का यह रिश्ता अभी भी जिंदा रखा जा सकता है, बस जरूरत है थोड़ी आत्मीयता की, थोड़ी साझेदारी की।
मोहल्लेदारी सिर्फ पास-पड़ोस में रहने का नाम नहीं, बल्कि एक ऐसी भावना है जो हमें जोड़कर रखती है। यह हमें सिखाती है कि खुशी हो या दुख, अकेले चलने से अच्छा है कि हम साथ मिलकर चलें। और यही तो असली जिंदगी है—जहाँ मोहल्ले का हर इंसान सिर्फ पड़ोसी नहीं, बल्कि परिवार का हिस्सा होता है।
प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या