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नाराज़गी — अलका गर्ग

 

पापा के आकस्मिक निधन से मेरा पूरा परिवार बिखर गया॥मेरी माँ और दो छोटे भाई जो कि उस समय कॉलेज में पढ़ रहे थे बेसहरा हो गए।मैं अपनी एक साल को बेटी को गोद में लिए कोने में सदमे में निशब्द खड़ी थी।
क्रियाकर्म की सारी तैयारियों को मैं आँखें से तो देख रही थीं पर मस्तिष्क में माँ भाईयों के भविष्य की चिंता, उनके आगे का जीवन यापन की इंतज़ाम का प्रश्न घूम रहा था।छोटी उम्र के भाई और कम उम्र में अकेली हो गई माँ को छोड़ कर जाना एक भयानक स्वप्न जैसा लग रहा था॥
ख़ैर सब काम निबट जाने पर मैं भी बहुत भारी मन से राकेश के साथ ससुराल आ गई और दिनचर्या में व्यस्त रहने की कोशिश करने लगी।मेरे एक भाई को मेरी बुआ अपने साथ ले गईं अपने बेटों के साथ व्यापार में लगवाने के लिए।मन माँ और छोटे भाई की चिंता में बहुत दुखी और व्याकुल रहता था।भाई की छोटी उम्र के कारण उसे पापा की कम्पनी में नौकरी और घर भी नही मिल सकता था॥
मेरे पति राकेश ने,कम उम्र के बावजूद बेहद परिपक्व एवम बड़ा निर्णय लिया और माँ और भाई को यहीं राँची बुला लिया क्यूँकि यहाँ से कोलकाता में उन लोगों की देखभाल करना और ख़ैर ख़बर लेना बड़ा मुश्किल था।पापा के मिले हुए पैसों से भाई के लिए पास के बाज़ार में इलेक्ट्रॉनिक का शोरूम खुलवा दिया॥
नया काम नया शहर और बिना अनुभव के कारण राकेश को भी भाई के साथ लगना पड़ता था।प्राइवेट कम्पनी में अपनी थका देने वाली नौकरी के बाद आ कर उसका हिसाब किताब देखना उसे निर्देश देना उनका नियम था।
माँ और भाई की ज़िंदगी की गाड़ी रास्ते पर आ जाये, दिन रात हम दोनों की यही कोशिश रहती।इसके लिए ज़िंदगी में हमें कितने पापड़ बेलने पड़े ,कितनी क़ीमत चुकानी पड़ी ये हम दोनों के अलावा और कोई नहीं जानता।
इधर मेरी ससुराल में हमारे ऊपर अचानक आई विपदा को नज़रअन्दाज़ करके,बेटी और दामाद को मायके वालों की सहायता करने के जुर्म में खरी खोटी सुनाई जानी शुरू हो गईं।नित नई लांछनाएँ ताने सुनने को मिलने लगे।मेरी और राकेश की लाख समझाने और कोशिशों के बाद भी ससुराल पक्ष की नाराज़गी बढ़ती ही गई।और एक दिन हमें घर छोड़ कर जाने को कह दिया गया।दो छोटी छोटी बच्चियों को ले कर हमने घर छोड़ दिया।बहुत कम पैसे में नया घर बसाना पड़ा। मैंने भी सिलाई पेंटिंग ट्यूशन शुरू कर दिये।
ख़ैर भाई का व्यापार चल निकला पर हमको उसके ऐवज में घर,रिश्ते ,शहर सब छोड़ना पड़ा।
और क़िस्मत की त्रासदी देखिए कि कुछ समय बाद भाई का व्यापार और शादी हो कर परिवार बढ़ने के बाद उसने और उसके परिवार ने भी हमारे कष्ट और सहारे को भुला दिया और तुलना और बराबरी का व्यवहार करने लगे।
हम तो इतना करने के बाद भी ख़ाली हाथ रह गए।दोनों परिवारों ने ही हमें बिसरा दिया। शायद जीना इसी का नाम है ,सोच कर हम ज़िंदगी में आगे बढ़ गए।
मैं जीवन भर इन दो ज्वलंत प्रश्नों का उत्तर नहीं खोज पाई..
१-क्या बेटी दामाद को बेहद मुश्किल समय में भी ससुराल वालों की मदद करने का हक़ नही..?क्या ये बेतुकी नाराज़गी जायज़ है ..?
२-क्या अपना काम निकाल जाने के बाद मायके वालों का बेटी और दामाद के एहसान भूल कर रिश्ता खत्म कर लेना जायज है..?

अलका गर्ग, गुरुग्राम

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