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वो पहली यात्रा — राजेन्द्र परिहार

 

जीवन में यात्राएं तो बहुतायत में की है, किंतु पहली यात्रा कारोमांच भुलाए नहीं भूलता हूं।

बात बहुत पुराने ज़माने की है तब कोयले और भाप के इंजन ही चला करते थे।उस समय हम गांव में रहा करते थे और बस की सवारी किया करते थे।
मोटर साइकिल भी किसी किसी के पास हुआ करती थी सो उस पर बैठने का सौभाग्य भी यदा-कदा ही मिला करता था।
पहली बार रेल यात्रा करने का सौभाग्य मिला तो मन में कौतूहल जाग्रत हुआ और खुशी का तो पारावार ही न था।
पिताजी के साथ पहली बार रेलवे स्टेशन देखा और
एक छोटी सी खिड़की टिकट विंडो से हमने टिकट खरीदा,ट्रेन के आने में समय था।
हम प्लेटफार्म पर खड़े ट्रेन रेलगाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे। मैं बार-बार अपने पिताजी से पूछ रहा था कि पिताजी कैसी होती है ये रेलगाड़ी, कितनी देर में आएगी कितने ही प्रश्न पूछ रहा था।
पिताजी एक ही जवाब देते अभी आएगी तब देख लेना। यकायक एक कानफाड़ू सीटी कानों में गूंज उठी,और दूर काले धुएं का गुबार उड़ाती हुई विशालकाय रेलगाड़ी देखकर मैं सिहर उठा। पिताजी ने इत्मीनान से कहा चलो आ गई ट्रेन और सामान उठाकर खड़े हो गए।
धड़धड़ाती हुई दैत्याकार ट्रेन को देखकर मैं सहम गया। हमें एक डिब्बे में जगह मिल गई। मैं शीशे के पास वाली सीट पर बैठ गया ताकि बाहर का नज़ारा देख सकूं।
एक झटका सा लगा और ट्रेन चल पड़ी धीरे धीरे और फिर फुल रफ्तार में दौड़ने लगी।
मैं कौतूहल से पीछे की ओर दौड़ते हुए पेड़ों और नदी नालों को देख रहा था।
मैंने पिताजी से पूछ ही लिया कि ये पेड़ पौधे पीछे की ओर क्यों भाग रहे हैं, पिताजी ने मुझे समझाया बेटा हम आगे की ओर तेजी से जा रहे हैं ना इसलिए हमें ये पीछे की ओर दौड़ते प्रतीत हो रहे हैं! वास्तव में ऐसा नहीं है उस दो घंटे के सफ़र में जो मज़ा आया वो मुझे अब भी याद आता है।
ट्रेन रुकी और हम अपने गंतव्य स्टेशन पर पहुंच कर उतर गये लेकिन किसी स्वप्नलोक सा नज़ारा आंखों में अब भी घूम रहा था।

राजेन्द्र परिहार “सैनिक”

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