संस्मरण _ वो अध्यापक // भोला सागर

वो दिन मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है। जब मैं तृतीय वर्ग में पढ़ता था। मेरे एक सीनियर मित्र के पास एक बहुत ही ख़ूबसूरत क़लम हुआ करती थी। मुझे क़लम से लिखने की बहुत रूचि थी। मेरी नज़र उनकी क़लम पर ही रहती थी।
कुछ दिन से वो क़लम मेरे गुरुजी श्री मोहन हज़ाम जी के पास रहती थी। उसी से वो काॅपी जाँचते और हस्ताक्षर भी करते थे। मेरी निगाह उस क़लम पर पड़ी हुई थी। मैं सोचता था कि काश!वो क़लम मेरे पास होती। मेरा दिल उस क़लम पर डूबता ही गया। मैंने कितनी बार उस क़लम को चुराने की कोशिश की। परंतु, चुरा नहीं पाया था।
एक दिन हमारे गुरुजी जिस रूम में रहते थे,वो क़लम उसी रूम में भूल आये थे। विद्यालय में गुरुजी की जेब में क़लम नहीं दिखी। मैं समझ गया कि शायद गुरुजी आज क़लम रूम में ही भूल आये हैं। मैं प्रार्थना की पंक्ति से धीरे-धीरे निकला और रूम पहुँचकर क़लम चुराकर ले भागा। मैं प्रार्थना की पंक्ति से गायब दिख गया था। गुरुजी को तबतक कोई शक नहीं हुआ था।
जब चार बजे विद्यालय में छुट्टी हुई। गुरुजी रूम पहुँचे तो देखे क़लम गायब है। उनको शक हो गया कि चुराया न चुराया हो। मेरा चेला भोला ही चुराया होगा। क्योंकि,उन्होंने पहले कई बार रूम में घुसते हुए देखा था।
दूसरे दिन विद्यालय में प्रार्थना के लिए पंक्ति बन गई। मुझे कुछ नहीं बोला गया। मेरे वो अध्यापक महोदय ने विद्यालय मोनेटर को आदेश दिया कि बेहया की एक सौ छड़ी तोड़कर ले आओ। आज वो एक सौ छड़ी क़लम चुराने वाले की पीठ पर बरसानी है। मैं समझ गया और फिर पंक्ति से धीरे-धीरे बाहर निकला। मैं भागकर रूम आया और क़लम रखकर फिर वहाँ से विद्यालय पहुँचा। ये सारे कारनामे हमारे वो अध्यापक ने अपनी पारखी नज़रों से देखा और मोनेटर से कहा अब ये सारी छड़ियाँ कार्यालय के एक कोने में रख दो। इसका काम हो गया। तबसे मेरे मन में चोरी न करने का एक प्रण जागा।
भोला सागर
चन्द्रपुरा,बोकारो,झारखण्ड