संस्मरण -अपनी भाषा पर गर्व करिये — मैत्रेयी त्रिपाठी

सन् १९९९ मैं कक्षा ६ की विद्यार्थी थी सरकारी स्कूल था नया नया दाख़िला लिया था गाँव में बस प्राइमरी स्कूल था इस वज़ह से ६ किलोमीटर का सफ़र पूरा करके शहर जाते थे , पैर धूल से सन जाते थे बाल में तेल ना लगायें तो उड़ कर चिड़िया का घोषला हो जाते ।हमारा सारा ध्यान रास्ते पर होता पैरों के छालों को छुपाने पर होता ,लेकिन जो गाँव और संस्कार होता है ना वो आपके व्यक्तित्व में होता है आप कही भी चले जाय लोगो को पता चल ही जाता है,आख़िरकार हमे सारे जतन करने के बाद भी गाँव वाली श्रेणी में डाल दिया गया अब हम पर कोई बोझ नहीं था ख़ुद को शहरी दिखाने का
पर माहौल बिल्कुल अलग था सभी कक्षा में मैडम की पसंदीदा लड़की होती वह भाषा भी बिना भाव के पढ़ती और मैडम खुश होकर उसके लिए तालियाँ बजवाती , इक दिन हमारी मित्र मंडली जल्दी स्कूल पहुँच गई हम आगे की बेंच पर बैठे ही थे कि मोहतरमा आयी और हम सबका बैग फ़ेक दिया और गवार बोल कर कहने लगी संस्कृत पढ़ने वाले लोग पूजा पंडिताई करेंगे , और अंग्रेज़ी के एक दो शब्द बोल दिये ….हमे भी ताव आ
हमने भी बोल दिया … त्वम् पिशाचिनीं अस्ति उसे समझ तो नहीं आया पर हमे हँसता हुआ देख कर चली गयी।
आज इतने सालों बाद मिल गयी मॉल में बच्चे भी थे साथ में हेलो आंटी बोल कर अभिवादन किया मैंने भी हेलो बोला तभी मेरे सुपुत्र जी वहाँ पधारे और मैंने उन्हें बताया की ये आंटी और मैं साथ में पढ़ते थे
उन्होंने झट पैर छू लिया
पर मैडम अभी भी नहीं बदली थी बोली इसे भी संस्कृत पढ़ा रही हो क्या पंडित ही बनाना है, मैं बोलने ही वाली थी कि बेटे ने कहाँ आंटी हम जिस विषय में अच्छा करते है उसी में पंडित बन जाते है माँ संस्कृत में पंडित है और मुझे साइंस पसंद है मैं साइंस का पंडित बनूँगा ।
मुझे हंसी आ गई मैंने कहाँ क्या करूँ बहन ये गाँव और संस्कार साथ ही नहीं छोड़ते
ये जो शहर है ये मुझे ख़ुद ही जकड़ रखा है शायद पंडित की ज़रूरत है इसे
अपनी भाषा पर गर्व करिये और अपने संस्कार पर भी
मैत्रेयी त्रिपाठी