Uncategorized

संस्मरण — रेखा पुरोहित

यूँ तो मैं बहुत अधिक घूमने नहीं जा पाती हूँ,
परंतु आज मैं आपके साथ एक संस्मरण साझा करना चाहती हूं जो यह सिद्ध करता है कि आप वहीं पहुँच जाते हैं जहाँ प्रभु चाहते हैं।
अगस्त 2002 की बात है। मेरे पतिदेव की नियुक्ति उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जनपद में बाबा केदार की शीतकालीन गद्दी स्थल ऊखीमठ के निकट एक गांव में थी। मैं भी कुछ कार्य से उस समय वहाँ गई थी।
12 अगस्त को हमने भगवान शिव के पवित्र स्थल बाबा तुंगनाथ के दर्शन का कार्यक्रम बनाया। हमने सोचा कि वो तो नजदीक ही है सुबह जाकर शाम तक वापस आ जायेंगे। फिर स्वतंत्रता दिवस भी आने वाला था तो ज्यादा दिनों का कार्यक्रम नहीं बना सकते थे।13 अगस्त को हम प्रातःकाल उठकर जल्दी–जल्दी गुप्तकाशी तक आए जहाँ से हमें तुंगनाथ के लिए बस पकड़नी थी, परंतु वहाँ आकर पता चला कि वहाँ के लिए कोई भी बस नहीं जा रही है और अगर जाना है तो कोई जीप या टैक्सी बुक करके जा सकते हैं। उस वक्त हम इस तरह की तैयारी से नहीं आए थे और हमारे पास उतने पैसे भी नहीं थे।
तभी मेरे पति ने देखा कि वहां गौरीकुंड की बस लगी है जो केदारनाथ जाने वाले यात्रियों को ले जाती है। उन्होंने कहा कि चलो केदारनाथ चलते हैं और हम उस बस मैं बैठ गए और गौरीकुंड पहुँच गए।
वहाँ से 18 किलोमीटर का पैदल रास्ता था, जो मेरे लिए उस समय चढ़ना बहुत कठिन था तो हम दोनो घोड़ों में बैठकर बाबा केदार के दर्शनों के लिए चल पड़े। पूरा ही रास्ता अत्यंत रमणीक था। जैसे–जैसे आगे गए पेड़ों की संख्या कम होती गई और हरे घास के मैदान ही दिखाई देने लगे। बीच में रामबाड़ा में हमने खाना खाया और लगभग चार घंटे में हम केदार धाम पहुंच गए। वहां बहुत ठंडा था और हमारे पास एक जैकेट को छोड़कर कोई भी गरम कपड़ा नहीं था। क्योंकि हम बिना तैयारी के आए थे। मेरे पति की नौकरी जिस क्षेत्र में थी केदार धाम में वहां के कई व्यवसायी थे। इस कारण हमें ठहरने के लिए शीघ्र ही स्थान मिल गया और खाने की भी व्यवस्था हो गई।
अगले दिन 14 अगस्त को प्रातः हमने स्नान आदि किया और बाबा केदार के दिव्य दर्शन किए।
बाबा के धाम वहाँ के अन्य मंदिरों के दर्शन किए।
जब हम मंदिर से कुछ ऊपर गए तो वहां घास के बड़े बड़े मैदान थे जिन्हें बुग्याल कहा जाता है। दिन में हम वापस गौरीकुंड आ गए और शाम 7 बजे तक अपने घर पहुंच गए।
ये पूरी यात्रा मेरे लिए किसी सपने के समान थी। हम कहीं और जाने के लिए आए और कहीं और पहुंच गए वो भी वहां जहां जाना मुझे असंभव लगता था। मुझे बार बार बुजुर्गों की कही बात याद आती हैं कि जब प्रभु की इच्छा होगी तो आप उस समय उस स्थान पर पहुंच ही जाओगे।

रचना–
रेखा पुरोहित*तरंगिणी*
रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Content is protected !!