संस्मरण -वो दिन — अमृत बिसारिया

ये उन दिनों की बात है जब मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ रही थी और हॉस्टल सरोजनी नायडू में रही थी। मैं चुलबुली, थोड़ी शैतान, ज़िंदादिल और कर्मठ लड़की थी।
हम तीन चार दोस्तों ने मिलकर संगम घूमने जाने का प्रोग्राम बनाया। वाह सुबह का वो मौसम, उगता हुआ सूरज संगम, के किनारे बहती नदियों ( गंगा, यमुना और सरस्वती )में सूरज का प्रतिबिंब,इमेजिन करिए, कितनी सुंदर कल्पना थी,अतः मैंने कल्पना को हकीकत में शामिल करने की कोशिश की।
मैंने अपने दो दोस्तों को अपने साथ लिया और हिंदी के हेड ऑफ डिपार्टमेंट से बात करने चले गये। मैंने कहा”, मैम, हम लोग पिकनिक मनाने चलते हैं”।उन्होंने आश्चर्य से पूछा “कहाँ “
हमने बताया “संगम चलते हैं।”उनके चेहरे पर भी प्रफुल्लता की एक किरण झिलमिलाने लगीं थी।
मैंने अपने दोस्त सुधा से कहा” हम सब तो तांगे से चलते हैं लेकिन प्रोफेसर्स के लिए बग्गी ले लेते हैं नहीं तो उनकी डिग्निटी के लिए ये अच्छा नहीं लगेगा”और अलग रहकर हम शैतानियां भी कर सकते थे। गाते बजाते मौज मस्ती के साथ हम संगम पहुँच गए।
कोई मेले का माहौल नहीं था भीड़ भीड़ का कोई नामोनिशान नहीं था।अतः ऐसा लग रहा था जैसे संगम हमारा ही इंतजार कर रहा हो।
माँझी को चप्पू चलाते देखकर मेरा मन हो आया कि मैं चप्पू चलाकर संगम को पार करती हूँ।यह मेरा बहुत बड़ा सपना था जो आज कामयाब होने वाला था।प्रोफेसर्स तो मना कर रहे थे लेकिन मैं प्लीज़ प्लीज़ प्लीज़ कहकर नव वाले से चप्पू मांग लिया।नाववाला भी उसमें बैठा और हम सब फ्रेंड्स उसमें बैठे।
आप यकीन करिए यह सच है कि मैंने पूरा संगम,चप्पू चला के ही पार किया था । थक तो मैं बहुत गयी थी लेकिन वाकई मेरी दोस्त सुधा और गीता ने यदि साथ नहीं दिया होता तो शायद वह सुनहरा मौका मुझे न मिला होता।
यह सच है कि अच्छा दोस्त आपको मिल जाता है तो खुशियाँ भी आपको मिलती है।बशर्ते हमारा चुनाव दोस्त कैसा हो, सही होना जरूरी है आज भी मुझे याद है वह संगम में नाव चलाना पानी की लहरों के उपर सूर्य की किरणों का तरंगित होना और खुशियों से मन का झूम जाना।
अमृत बिसारिया