स्कूल वाले दोस्त/संस्मरण — राजेन्द्र परिहार

सबसे पावन मासूम और निर्भीक दोस्ती होती है वो स्कूल की दोस्ती।
बचपन में तनिक होश संभालते ही स्कूल में दाखिला करवा देते हैं माता पिता।
बचपन की शरारतें नादानियां,शैतानियां और मासूमियत यहां भी खत्म नहीं होती और खेलते कूदते कब दोस्ती हो जाती है,पता भी नहीं चलता।
ये अल्हड़ दोस्ती पूरी तरह से पावन एवम्
पवित्र भावना वाली दोस्ती ही होती है।
मैं और हम सब इस मस्ती और दोस्ती के दौर से गुजरे हैं।
मुझे याद है स्कूल का पहला दिन -पिताजी दाखिला करवा कर स्कूल में छोड़ आए थे।
सब बच्चे अनजान थे और मैं सहमा सहमा सा दरी पट्टी पर बैठा गुमसुम सा सोचता रहा कि कहां जेल में आ गया हूं और सब बच्चे मुझे ही देख रहे थे और मुझे एहसास हो रहा था कि जैसे मुझे ही घूर रहे हैं सब।
मास्टर जी ने बड़ा प्यार स्नेह जताया पर मुझे तो जैसे रोना आ रहा था। धीरे-धीरे एक दो दोस्तों से परिचय हुआ और दो चार दिन में तो सब बच्चे अपने से लगने लगे।
दो चार तो पक्के दोस्त बन गए।
आधी रेस्ट हम दोस्त एक साथ मिल बैठकर खाना खाते,बड़ा ही आनन्द आने लगा किसी के घर से कुछ बना है तो किसी के घर से कुछ अलग तरह का व्यंजन बना है।
सब मिल बांट कर खाना खाते, ऐसा अनूठा आनंद बाद में जीवन में आया ही नहीं लौटकर।
खेलना कूदना,खूब हंसना हंसाना और मन भर के मस्तियां करना।
एक सलाह देता और सब सहर्ष मान लेते।
शैतानियों में चोट भी लग जाती तो घर में नहीं बताया करते थे।
पेड़ों पर चढ़ना और बंदर सेना वाली हरकतें करना वास्तव में ही आनंददायक होता।
एक तरह से जन्नत का नज़ारा था स्कूल के वो दिन और वो दोस्त।
राजेन्द्र परिहार “सैनिक”