वो सपना — भोला सागर

जब मैं नौवीं कक्षा में पढ़ता था। हर रोज कविता सरीखी कुछ पंक्तियाँ पन्नों पर लिखा करता था। लिखता फिर सुधारता उन पंक्तियों को। इस तरह से उन पंक्तियों को क्लिष्ट से क्लिष्ट बनाने की हमेशा चेष्टा रहती थी और बना भी लेते थे।
यहीं से काव्य सर्जना का बहुत बड़ा आधार बनता गया। लिखने की ओर रूचि जागती गई। नई-नई रचनाएँ बनती गईं। मैं भी अच्छा लिखकर एक नामी-गिरामी कवि बनना चाहता था। मैं सोचा करता था कि मेरी रचनाएँ एक दिन जरूर बड़े-बड़े साहित्यिक परिवेश में प्रवेश करेंगी। मेरी भी रचनाएँ सुंदर बनेंगी। बड़े-बड़े साहित्यिक पढ़ेंगे और सराहेंगे।
मैं भी सपना देखने लगा था कि अब मैं कवि बन गया।
धीरे-धीरे साहित्यिक पटल पर लिखने लगा। कहा जाता है बार-बार की रगड़ से कहीं भी एक लकीर बन ही जाती है। उसी अभ्यास पर कायम रहा। दिन बीतते गए। लेखनी में धार आती गई। हर पटल पर सराहना मिलती रही।अब मैं भी सफल काव्य सर्जना करने लगा। साहित्यिक समूह से सुंदर प्रतिक्रियाएँ मिलती रहीं। अब मेरा #वो सपना पूरा होने लगा,जो मैंने बचपन में कवि होने का देखा करता था। तब मैंने जाना भी कि काव्य सर्जना में भी कम संघर्ष नहीं है। कठिन संघर्ष,अनवरत अभ्यास से ही सफलता के मुकाम तक पहुँचा जा सकता है। बिना संघर्ष के कुछ भी नहीं प्राप्त किया जा सकता।
भोला सागर
चन्द्रपुरा,बोकारो,झारखण्ड