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यादगार बारात (संस्मरण) — नरेश चंद्र उनियाल

 

बात 8 मई सन् 1992 की है.. मैं तब बी.टी.सी. प्रशिक्षण ले रहा था। मेरे गाँव के सहपाठी बड़े भाई पवन ममगाई की शादी थी। बारात ने हमारे गाँव से लगभग 100 किमी दूर दूसरे गाँव जाना था। एक नए क्षेत्र को देखने की ख़ुशी मेरे चेहरे पर स्पष्ट परिलक्षित हो रही थी।
मैं गूमखाल में बारात की प्रतीक्षा कर रहा था। (असल में मुझे ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट से ही बारात में शामिल होना था, घर नहीं गया था)…
लगभग 5 बजे गूमखाल में बारात की बस पहुंच गई। सब गाँव वालों से और नाते रिश्तेदारों से बहुत गर्मजोशी के साथ रामा कृष्णी एवं मुलाक़ात हुईं।अब हम गंतव्य की ओर चल पड़े।
लगभग 7 बजे हम सतपुली कस्बे से होते हुए दूधारखाल पहुंच गये। यह हमारा अन्तिम बस स्टेशन था… यहाँ से अब गाँव तक पैदल जाना था। नई जगह जाना था…कितना दूर पैदल जाना है लगभग किसी को इसका अनुमान न था..क्योंकि इतनी दूर का रिश्ता पहली बार हुआ था, हमारे गाँव से.. वर पक्ष के लोग भी शादी से पहले गाँव नहीं गये थे। शादी भी बाहर ही तय हुईं थी। मिलना मिलाना, देखना दिखवाना सब बाहर ही हुआ था।
8 बजा, 9 बजा,10 बजा… हम चले जा रहे थे… जहाँ जाना था उस गाँव का कहीं नामोनिशान न था। कन्या पक्ष के लोग भी चिंतित हो गये कि अभी तक बारात क्यों नहीं पहुंची.. तब फोन का जमाना भी नहीं था। कन्यापक्ष के लोग पेट्रोमेक्स जलाकर हमें ढूंढ़ते हुए आधे रास्ते में पहुंच गये। अब जान में जान आयी। मध्य रात्रि 12 बजे हम गाँव पहुंच गये। बैठक व्यवस्था अति उत्तम थी। बैठे तो बस बैठे…. खाना पीना सब वहीं पर हुआ। छोले तो बहुत ही स्वादिष्ट बने थे, खूब खाये सबने। बहुत अच्छी व्यवस्था की थी उन्होंने… वहाँ से बस सोने के लिए ही उठे।
सुबह सब लोग पास में बहती हुईं नदी में घुस गये…नहा धोकर तरो ताज़ा होकर वापस आये। शादी सकुशल सम्पन्न हो गयी। अब बारात वापस प्रस्थान कर गई। पर यह क्या? कुछ दूर ही चले थे कि अधिकांश बाराती पगडंडी छोड़कर इधर उधर झाड़ियों की तरफ भागने लगे.. मैं सोच ही रहा था कि ये क्या हो रहा है कि अचानक मुझे लगा कि अब मुझे भी कोई झाड़ी देखनी चाहिए। पता चला कि कल रात छोले में सोडे की मात्रा अधिक हो गई थी… सब बारातियों के पेट ख़राब हो गये थे। बस तक पहुंचते पहुंचते हम चार पांच बार झाड़ियों की तरफ हो लिए थे… यह सिलसिला आगे भी चलता रहा और मेरे बस स्टॉप तक हमने गाड़ी भी तीन चार बार रुकवाई। उससे आगे का पता नहीं कि बरातियों का क्या हाल रहा, क्योंकि मैं आधे रास्ते से ही अपने ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट चला गया था।
आज इस शादी को लगभग 32 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं, परन्तु आज भी, जब भी गाँव में किसी बारात में शामिल होने जाता हूँ तो भाई पवन ममगाई की बारात का दृश्य बरबस आँखों के सामने उपस्थित हो जाता है।
– नरेश चन्द्र उनियाल,
पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड।

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