यादों का पिटारा,– अलका गर्ग

आज शादी के पैंतीस साल बाद अंजू को मौक़ा मिला अपनी ननिहाल की गिरती हवेली के खंडहरों में जा कर अपनी यादों को टटोलने का।
इन पैंतीस सालों में और भी दो बार जाने का मौक़ा उसे मिला था।एक बार मामाजी की लड़की की शादी में और एक बार वैष्णव देवी से लौटते हुए एक दिन के लिए अपना ननिहाल देखने के लिए पति से आग्रह किया तो वे उसे ले गये थे।पर इसको भी लगभग बीस साल हो गये थे।
न जाने कैसा खिंचाव था उस मिट्टी में कि बार बार अंजू का मन वहीं खिंचता था।इतने साल देश विदेश में रहने के बाद भी वह भूल नहीं पाई थी नानीजी के साथ गुज़ारे बचपन के वो सात साल…..उन सात सालों में उसने ज़िंदगी भर के लिए प्यार समेट लिया था।उनके सिखाये गिनती पहाड़ों ने उसे हमेशा गणित में अव्वल रखा।सुबह पाँच बजे उठा कर रज़ाई ओढ़ा कर एक गिलास दूध और बड़ा सा लड्डू दे कर पढ़ने बिठा देतीं कहतीं भोर का पढ़ा जल्दी याद होता है।
छोटे भाई के आने के बाद तीन साल की अंजू को नानीजी के घर भेज दिया गया था।फिर वह दस साल की होने पर मम्मी पापा के पास कोलकाता गई।पर वह कभी अपनी ज़िंदगी के वो सात साल भुला ना सकी।ननिहाल की गलियाँ,सहेलियाँ,खिलौने,चौपाल,नानाजी का हुक्का,नानीजी का पानदान,आँगन का पीतल का हैंड पम्प,लड्डू,मठरी,गाय भैंसों के गले की घंटी की आवाज़,वामन टूइयाँ के रोटी माँगने की आवाज़,मंदिर का घंटा,मस्जिद की अज़ान……सब जस के तस आज भी उसने अपने यादों के पिटारे में सहेज कर रखे हुए हैं।
आज कच्ची पक्की सड़कों से होते हुए ,नानाजी की धर्मशाला के सामने से गुज़र कर गाड़ी जब बंद हवेली के सामने जा कर रुकी तो लगा जैसे दरवाज़े,दीवारें सब गले मिलने को दौड़ पड़ीं हों ..कहाँ थी इतने दिन…?
गाड़ी देख कर आस पास कुछ लोग इकट्ठे हो गए।सोच कर कि ज़मींदार साहब के शहरों में बसे हुए घरवाले आये हैं।एक बुजुर्ग औरत ने दिमाग़ पर ज़ोर डाल कर अंजू को पहचान लिया।बंद दरवाज़े ,गिरती ईंटें और कभी गुलज़ार रहने वाले चबूतरे पर बैठ गई अंजू अपनी यादों का पिटारा खोल कर।
फोटो खिचतीं जाती और पिटारे को यादों से और भी भरती जाती ..यादों को समेट रही थी ,शेष बाक़ी बची ज़िंदगी के लिए….
अलका गर्ग, गुरुग्राम