अपनापन की तलाश में (एक संस्मरण) — प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या

अपनापन की तलाश में (एक संस्मरण) — प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या
बचपन से ही मैं एक ऐसे अपनत्व की तलाश में थी, जहाँ बिना किसी स्वार्थ के स्नेह और अपनापन मिले। मेरा परिवार मध्यमवर्गीय था, जहाँ माता-पिता अपने कर्तव्यों में इतने व्यस्त रहते कि भावनाओं की गर्माहट कभी-कभी अनदेखी रह जाती।
कॉलेज के दिनों में एक घटना ने मेरी इस तलाश को नया आयाम दिया। मैं नए शहर में पढ़ाई करने गई थी, जहाँ कोई परिचित नहीं था। शुरुआती दिनों में मैं अकेली महसूस करती थी, लेकिन धीरे-धीरे एक सहपाठी, नेहा, मेरी सबसे अच्छी दोस्त बन गई। उसकी सहज मुस्कान और हर मुश्किल में मेरे साथ खड़े रहने की भावना ने मेरे मन को छू लिया।
एक दिन मेरी तबीयत बहुत खराब हो गई। घर से दूर, अकेलेपन का अहसास मुझे घेरने लगा। तभी नेहा बिना बताए मेरे कमरे में आ गई। उसने मुझे दवा दी, मेरी देखभाल की और पूरी रात जागकर मेरा ख्याल रखा। उस दिन मुझे एहसास हुआ कि अपनापन केवल खून के रिश्तों में नहीं, बल्कि सच्चे रिश्तों की गहराई में बसता है।
आज भी जब मैं उस दिन को याद करती हूँ, तो मन भर आता है। मेरी तलाश नेहा की दोस्ती में पूरी हो गई थी—एक ऐसा अपनापन, जो निःस्वार्थ प्रेम और सच्चे साथ में बसा था।
प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या