बदलता परिवेश — सीमा त्रिपाठी

आधुनिकता की दौड़ में हम संस्कार को भूलते जा रहे है ।अपने बच्चो में माता पिता या बुजुर्ग लोगो का सम्मान आदर करने की भावना विकसित नहीं होती,तो मुमकिन है कि को बड़े होकर आप का भी सम्मान नहीं करेंगे क्युकी उन्होंने हमें भी ऐसा करते नहीं देखा और ना ही समझा इसलिए अभिभावकों को चाहिए समय के साथ परिवर्तन को स्वीकार करे अन्यथा वह बच्चो के लिए बोझ बन जाएंगे। आप जो है जैसे है बच्चे भी भी वैसे हो ये ना जरूरी है ना संभव तो बच्चों को सीखने का प्रयास करे आदेश बिल्कुल भी ना दे हर बच्चे में इतनी समझ होती है बच्चे कुछ भी मान लेंगे ये समझना गलत है समय के साथ समाज ,बदल जाता है , चुनौती बदल जाती है अत: बच्चो को अपने हिसाब से समझने का मौका दे ।यदि वो आपका सम्मान करते है तो हर बात बताएंगे और सलाह भी अवश्य लेंगे ध्यान रखना है कि आपका निर्णय बच्चो के लिए कितना मान्य है।
आज के समय में हमारे संस्कार संस्कृति में जो बदलाव आया है उसे जीवंत करना असंभव नहीं लेकिन मुश्किल है वो इसलिए समय का अभाव त्योहारों और विवाह संस्कार में भी रीति रिवाजों और संस्कारों को किसी तरह निपटाया जाता है सभी जगह नहीं लेकिन कहीं कहीं,बुजुर्ग भी चुपचाप अपनी इज्जत समेट कर बैठे रहते है जो उनके लिए असहनीय होता है कुल मिलकर मै ये कहूंगी अभिभावक और बच्चों के तालमेल में बहुत अंतर है जिसे सहना किसी के लिए भी पीड़ा दायक है और फिर ध्यान आता है वृद्धाश्रम जहां अपना परिवार तो नहीं होता लेकिन ग़ैरों के साथ बिना कलह के सुकून महसूस होता है और इसी सुकून की तलाश में वृद्धाश्रम का आसरा लेते है।
सीमा त्रिपाठी
लखनऊ उत्तर प्रदेश