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एक चाह मन की / लेखक दुष्यंत द्विवेदी की कलम से 

प्रसिद्धि पाने की मन में थी चाह
टका छिदाम तक नहीं मेरे पास
बैठा था कुछ खिन्न मन था भन्न
तरकीब भी दूर तक नजर नहीं आई
सोचता था सबने प्रसिद्धि कैसे पाई
अचानक दिमाग ने ताने बाने से गुने
ख्याल आया सबसे सस्ता सा साधन
क्यों न समाज सेवी बन कर देख लूँ
बस निकल पड़ा समाज सेवा को
जबरन घुसने लगा किसी कार्यक्रम में
लोगों की नजरों में आने के लिये
आगे बढ़कर करने लगा हर काम
कभी अस्पताल जाकर पूंछा मरीजों का हाल
मदद को रहने लगा हरदम बेहाल
समझो हमारा भी खाता था खुला
अपने से लोग लगे मुझको बुला
धीरे धीरे शहर में होने लगा नाम
समाज सेवक का मिल गया इनाम
लोगों के काम करवाने होता आगे
कोई कुछ नगद दे जाता गाहे बगाहे
बस ख्याति के साथ आने लगे दाम
बहुतेरे मोबाइल से हो जाते काम
हम करते घर पर दिन भर आराम
बस समाज सेवा नहीं की कभी
झुग्गी बस्तियों में जहाँ होती थी गन्दगी
गंदे नाले की असहनीय बदबू
भूखे नङ्गे बच्चे बिना वसन के
एक एक निवाले को मोहताज
शिक्षा का कहीं नामोनिशान नहीं
बस होता था जुआ शराब का मेल
अनवरत चलता था यही खेल
बस यही देखकर न जुटाई हिम्मत
कभी नजर उठाकर भी न देखा उस ओर
डरता था कहीं गरीब कोई मदद न मांग ले
घर आकर मेरी सियासत न बिगाड़ दे
मेरी समाज सेवा तो नाम कमाने को है
नाम कमा लिया शोहरत दौलत कमा ली
अब तौबा है इस समाज सेवा से
जिसमें समय और पैसे पर बात आये।

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