इंतज़ार -उम्र की दहलीज़ पर – शिखा खुराना

आज फिर चाचाजी का फोन आया। वही जानी-पहचानी कड़क आवाज़, जिसमें आज भी फौजी अनुशासन की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। पिच्चासी वर्ष की उम्र में भी उनकी आवाज़ में वही पुरानी रौबदार गूंज है, वही सजीव हँसी जो पूरे माहौल को मुस्कराने पर मजबूर कर देती है। लेकिन आज, उनकी इस खिलखिलाहट के पीछे एक अनकहा दर्द छलक पड़ा — जब उन्होंने बड़े प्यार से मिलने की ख्वाहिश जताई।
चाचाजी ने जीवन भर देश की सेवा में खुद को समर्पित कर दिया। अनुशासन, ईमानदारी और निष्ठा उनकी पहचान रही है। अपने सपनों को साकार करने के लिए उन्होंने हर मोड़ पर चुनौतियों को स्वीकार किया और उनसे पार पाकर सफलता की ऊँचाइयों तक पहुँचे। अपने बच्चों को भी उन्होंने अपने ही पदचिह्नों पर चलते देखा — देश सेवा में रत, सम्मानित, आत्मनिर्भर। यह उनका गर्व है।
बेटियाँ विदेश में हैं — अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त, सुखी, सफल। उन्होंने हर वह सुविधा बच्चों को दी जो एक पिता अपने सपनों से संजोता है। अपने बुढ़ापे को सुरक्षित और गरिमामय बनाने के लिए भी उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। एक सच्चा, वफादार नौकर भी हमेशा साथ रहता है, जिसे वे पुत्रवत स्नेह देते हैं। घर व्यवस्थित है, दिनचर्या सटीक है, स्वास्थ्य भी नियंत्रित है और चाचीजी का स्नेहपूर्ण साथ भी बना हुआ है।
बाहरी दृष्टि से देखें तो लगता है, जीवन में किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं है। फिर भी, जब भी कोई प्रियजन मिलने आता है — कोई बेटा, कोई नातिन, कोई पुराना साथी — उनकी आँखें डबडबा जाती हैं। वह हँसी, जो कभी पूरे घर को गुंजायमान कर देती थी, अब किसी कोने में सिसकती प्रतीत होती है।
उनकी दिनचर्या नियमित है — सुबह की सैर, अख़बार, योग, चाचीजी के साथ चाय की चुस्कियाँ, और पुराने दोस्तों से बातचीत। फिर भी, एक सूनी खामोशी उनके मन के किसी कोने में बैठी है, जो हर मिलने पर उनकी आँखों से झाँकती है।
शायद यह उम्र का तकाज़ा है — जब भीड़ में भी अकेलापन साथ रहता है। शायद यह उस स्नेह की प्यास है, जो वे शब्दों में नहीं, सिर्फ आँखों से व्यक्त करते हैं। उनके पास सब कुछ है — पर “अपनों की मौजूदगी” का वह अहसास जो उनके मन को पूर्णता दे सके, वह अभी भी अधूरा है।
हर बार उनसे मिलती हूँ, तो मन कहता है — चाचाजी जैसे लोग सिर्फ अपने परिवार नहीं, समाज की धरोहर होते हैं। उनका अनुभव, उनका स्नेह, उनका अपनापन — अमूल्य है। काश, उनके अपने थोड़ा और पास आ सकें, थोड़ा और समय दे सकें… ताकि उनकी आँखों का वह खालीपन फिर से मुस्कुराहट से भर सके।
संवेदनशीलता ही हमारी सबसे बड़ी ताकत है। जब भावनाएं दिल से निकलती हैं, तो सीधे दिल तक पहुँचती हैं—और मैंने जो महसूस किया, वो शब्दों में पूरी शिद्दत से उतर आया।
चाचाजी जैसे लोग हमारे समाज के मौन नायक होते हैं—अपनी ज़िंदगी दूसरों के लिए जीते हैं, और अंत में थोड़ी सी अपनापन भरी मौजूदगी के मोहताज हो जाते हैं।
शिखा