लघु कथा : मिठाई — राजेश कुमार ‘राज’

मेरा ननिहाल मेरे घर से लगभग २० से २५ किलोमीटर दूर एक गाँव में था। मेरी माँ चार बहने थीं। उनमें मेरी माँ तीसरे नंबर पर हैं। मेरी माँ से मुझे मालूम चला था कि जब वह तीन या चार वर्ष की थी तब उनकी माता जी का देहांत हो गया था। उनकी माँ के देहांत के पश्चात उनके पिता जी ने एकाकी जीवन जीना शुरू कर दिया और पारिवारिक जिम्मेदारियों से विमुख हो गए थे। मेरी माँ के चाचा और चाची ने इन सभी बहनों को बड़े लाड़-प्यार से पाल-पोस कर बड़ा किया और सबकी शादियाँ अपनी सोच के अनुसार अच्छे खाते-पीते घरों में कर दी। मेरी माँ केवल चार बहने ही थीं कोई भाई नहीं था और उनके चाचा-चाची के घर भी कोई संतान नहीं थी। अतः मेरी माँ का बचपन अपने चाचा-चाची के लाड़ प्यार तले गुजरा। यहाँ तक कि उनकी माँ की याद ने भी उन्हें कभी नहीं सताया।
मुझे याद है जब हम अपने ननिहाल जाया करते थे। तब हमें रूडकी शहर के समीप पथरी नदी, जो एक सुखी और बरसाती नदी है, के पुल पर बस से उतर जाना पड़ता था और वहा से लगभग चार-पाँच किलोमीटर पैदल चल कर अपने ननिहाल पहुंचना पड़ता था। पथरी नदी के पुल से उतरकर हमें गंग नहर को एक संकरे से पैदल पारपथ (फुट ओवर ब्रिज) जैसी संरचना से गुजर कर पार करना पड़ता था। बचपन में हमें वह दृश्य बड़ा ही भयावह लगता था। ऊपर से पथरी नदी का फैला हुआ पाट (रिवर बेड) और उसके नीचे से तीव्र प्रवाह में बहती गंग नहर और हम दोनों बहन-भाई अपने माता-पिता का हाथ पकड़ कर उस संकरे से पैदल पुल से गंग नहर को पार कर रहे होते थे। माँ हमें हिदायत करती रहती थीं कि अपने बाएं ओर गंग नहर को मत देखो नहीं तो चक्कर खा कर गिर जाओगे। हम जैसे-तैसे डरते-डरते नहर को पार कर ही लेते तब लगता कि जान बच गयी। इसके पश्चात पैदल सफ़र शुरू होता था हरे-भरे खेतों के बीच से बैलगाड़ी या झोटागाड़ी के आवागमन से बने कच्चे रास्ते पर। कभी-कभी मेरी माँ के ननिहाल की कोई बैलगाड़ी या झोटागाड़ी मिल जाती थी तो वह हमें लिफ्ट दे देती थी और हम बिना थके अपने ननिहाल पहुँच जाते थे। आज से ६० साल पहले उस क्षेत्र के गाँव किसी सड़क नहीं जुड़े थे। लेकिन १९८०-१९९० के दशक के बीच इस क्षेत्र के गाँव भी सड़कों के माध्यम से हरिद्वार शहर से जोड़ दिए गए। अब हमारी तरह की रोमांचकारी यात्रा करने की जरुरत ही नहीं रही।
एक बार हम दोनों बहन-भाई अपने माता-पिता के साथ ननिहाल गए। पिता जी हमें पहुंचा कर दूसरे दिन लौट गए। जैसे ही हम लोग पहुंचे चारों ओर से आवाजें आने लगीं “शहरी आ गए , शहरी आ गए।” हमें हमारे नाना-नानी और उनके परिवार के लोग प्यार से “शहरी” बुलाया करते थे और हमें यथा संभव शहर तुल्य सुविधाएं देने का प्रयास करते रहते थे। छोटा सा गाँव था। कोई बाज़ार नहीं था। बस एक-आध परचून की दुकान थी। हलवाई की दुकान की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। उस बार मैंने मिठाई खाने की जिद कर ली। नानी ने अपने कोठार (अनाज इत्यादि रखने की छोटी सी कोठीनुमा संरचना) में कुछ देखा। तत्पश्चात किसी को दुकान से मिठाई लाने के लिए भेज दिया। मैं खुश हो गया कि आज तो बर्फी या अन्य कोई मिठाई खाने को मिलेगी।
दुकान गया व्यक्ति जब लौट कर आया और नानी ने उस के हाथ से लेकर मुझे मिठाई दी तो मेरे आश्चर्य मिश्रित दुःख का कोई ठिकाना ना रहा। यह क्या, नानी ने तो गुड की कुछ डलियां मुझे थमा दीं और बड़े प्यार से बोली “ले शहरी मिठाई खा ले।” मैंने नाराज होते हुए कहा “नानी यह मिठाई कहाँ है, यह तो गुड है।” नानी ने बड़े भोले अंदाज में कहा “बेटा गाँव में तो हम इसी को मिठाई कहते हैं।” तब मुझे पता चला कि उस गाँव में गुड को ही मिठाई कहा जाता था। यह सुन मैं अपने ननिहाल के लोगों की अज्ञानता, जो कि वास्तव में सहजता थी, पर अपनी बाल सुलभ हंसी रोक नहीं पाया।
मुझे आज भी वह घटना याद है। उस घटना को याद करके मैं आज भी अपनी हॅंसी रोक नहीं पाता हूॅं। अब मेरा ननिहाल उजड़ चुका है। बड़े नाना, छोटे नाना-नानी और उनके पारिवारिक सगोत्रीय सम्बन्धी भी नहीं रहे। बाद में आई पीढ़ियाँ रोजी-रोटी कमाने के लिए गाँव छोड़ कर इधर-उधर चली गयीं। अब किसी से कोई संपर्क नहीं रहा। कभी-कभी अपनी माँ से ननिहाल के किस्से-कहानियाँ सुन लेता हूँ। अपने नाना-नानी के निश्छल प्रेम और वात्सल्य को याद करके मेरी आँखें आज भी नम हो जाती हैं।
राजेश कुमार ‘राज’