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नानी का घर और बच्चों की मस्ती — शिखा खुराना

संस्मरण: नानी का आँगन, बचपन की दुनिया
मेरी नानी का घर एक पुरानी हवेली जैसा था, जिसमें ऊपर-नीचे कई परिवार रहते थे। जब भी हम गर्मियों की छुट्टियाँ मनाने नानी के घर जाते, तो ऐसा लगता जैसे पूरा मोहल्ला उस घर के चौक (आंगन) में समा गया हो। बच्चों की चिल्ल-पों मची रहती और बड़े अपने-अपने कामों में व्यस्त होते।
मेरे नानाजी और दोनों मामा जब दफ्तर जाने लगते, तो हम बच्चे उनके पीछे पड़ जाते कि हमें खर्ची (पॉकेट मनी) देकर जाएं। नानाजी और बड़े मामा तो कुछ पैसे देकर पीछा छुड़ा लेते, लेकिन छोटे मामा—जो राजनीति से भी जुड़े थे—हमें इस शर्त पर खर्ची देते कि हम उनकी पार्टी की कन्वेसिंग (प्रचार) करें। हम बच्चे भी खर्ची के लालच में उनके साथ जोर-जोर से नारे लगाते हुए चल पड़ते।
जब सब काम पर चले जाते और नानी दोपहर में आराम करने लगतीं, तब हम बच्चे आंगन या सीढ़ियों के किसी कोने में गुड्डा-गुड़िया की शादी रचाते। नाना और मामाओं से मिली खर्ची से मिठाइयाँ और खिलौने लाकर हम छोटी-सी पार्टी करते। हमारी मौसी, जो हमारी हमउम्र ही थीं, भी हमारे साथ खेलने आ जातीं।
शाम को नानी हमें बासी रोटी पर घी लगाकर चाय के साथ देतीं और हम बच्चों को उसमें ही जीवन के सारे रस मिल जाते। रात में हम छत पर पानी का छिड़काव करते, गद्दे बिछाते और तारे निहारते हुए नानी की कहानियाँ सुनते-सुनते सो जाते।
बचपन की वो छुट्टियाँ, नानी का प्यार, और नन्हें-नन्हें अनुभव जीवन की सबसे सुंदर यादें बन गए हैं। नानी का घर हमारे लिए सिर्फ एक घर नहीं था—वह एक पूरी दुनिया थी, जहां मासूमियत, मस्ती और अपनापन बेफिक्री से सांस लेते थे।
शिखा

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