प्रकृति का दोहन — शिखा खुराना

मनुष्य, सृष्टि का सबसे बुद्धिमान प्राणी माना जाता है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसने प्रकृति के संसाधनों का दोहन प्रारंभ किया, जो प्रारंभ में सीमित और संतुलित था। किंतु जैसे-जैसे उसकी आवश्यकताएँ बढ़ती गईं, वैसे-वैसे धरती पर उसका बोझ भी बढ़ता गया। आज स्थिति यह है कि आवश्यकता से अधिक लालसा ने धरती की कोख को ही घायल कर दिया है।
प्रकृति ने हमें जल, वायु, वन, खनिज, जीव-जंतु और उपजाऊ भूमि जैसे अनमोल संसाधन प्रदान किए हैं। ये सभी संसाधन सीमित हैं और इनका संतुलित उपयोग ही टिकाऊ विकास की कुंजी है। लेकिन औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते मनुष्य ने अंधाधुंध खनन, वनों की कटाई, जल स्रोतों का अत्यधिक दोहन तथा भूमि का अनियंत्रित उपयोग किया है।
धरती के इस असंतुलित दोहन के दुष्परिणाम अब स्पष्ट रूप से सामने आने लगे हैं — जलवायु परिवर्तन, ग्लेशियरों का पिघलना, सूखा, बाढ़, वायु प्रदूषण, जैव विविधता में गिरावट, और महामारी जैसी वैश्विक समस्याएँ। ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति के नाम पर धरती के संसाधनों का इस प्रकार दोहन उचित है?
इस प्रश्न का उत्तर न में है। आवश्यकता की पूर्ति तक सीमित उपयोग तो उचित कहा जा सकता है, परंतु लालच की हद तक किया गया दोहन आत्मघाती है। गाँधी जी का यह कथन यहाँ अत्यंत प्रासंगिक है — “धरती सबकी ज़रूरत पूरी कर सकती है, लेकिन किसी एक के लालच को नहीं।”
अब समय आ गया है कि हम संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग की ओर लौटें। नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को प्राथमिकता दें, जल संरक्षण करें, वृक्षारोपण को बढ़ावा दें, और ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ के सिद्धांतों को अपनाएँ।
धरती माँ हमारी संरक्षिका है। उसका सम्मान और संरक्षण हमारा दायित्व है। यदि हम भविष्य की पीढ़ियों को एक स्वस्थ, समृद्ध और संतुलित धरती सौंपना चाहते हैं, तो हमें आज ही अपनी आदतें बदलनी होंगी। आवश्यकता और लालसा के बीच की रेखा पहचाननी होगी, तभी मानव और प्रकृति के बीच संतुलन बना रह सकेगा।
– शिखा खुराना