पुस्तकें — प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या

कभी सोचा है, कि जब कोई पास नहीं होता, तब कौन होता है?
जब मन उलझा होता है, आँखें नम होती हैं, और शब्द चुपचाप भीतर काँपते हैं—तब कौन होता है जो बिना कुछ कहे भी सब कुछ सुनता है।सो होती हैं किताबें जो हमारी मार्गदर्शक बन कर
हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हैं देती हैं।
किताबें इंसान की सबसे सच्ची मित्र हैं।
वे न शिकायत करती हैं, न अपेक्षा रखती हैं।
ना समय की माँग, ना जवाबों की जल्दी।
बस, होती हैं—एक मौन में बोलती हुई, एक शांति में जीवन जगाती हुई।
पलकों के नीचे, तकिये के बगल में, बैग के भीतर, सदा हमारे दिल के पास होती हैं किताबें।
फिर हम ने ही किताबों से दूरी बन ली इस डिजिटल युग में।
क्योंकि हम खुद से दूर हो गए हैं। मोबाइल कंप्यूटर ने उनकी जगह ले ली,हमने उस मौन से दूरी बना ली है, जिसमें किताबें जीती हैं।
अब हम क्लिक करते हैं, छूते नहीं। हम स्क्रॉल करते हैं, ठहरते नहीं।
किताबें आज भी वहीं हैं,
अपने कवर में बंधी हुईं, हमारी आत्मा की थकी हुई साँसों का इंतज़ार करती हुईं।
कभी कविता बनकर, कभी उपन्यास, कभी चिट्ठियों के रूप में आज भी हमारे आस पास ही मंडराती हैं।आज भी अलमारियों में बंद हमारे आने का इंतज़ार कर रही हैं।
पुस्तकें इंसान की सुख दुख की साथी हैं।
तो लौट चलो,
उन के पास जो कभी रूठी नहीं।
क्योंकि जब दुनिया शोर से भर जाती है,
तब एक पुस्तक की चुप्पी सबसे सच्ची लगती है।
प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या