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संस्कारों की नींव हिलती क्यों जा रही है? — शिखा खुराना

 

आज फेसबुक पर एक हृदयविदारक समाचार पढ़ा—एक बुजुर्ग दंपति ने अपने बेटे-बहुओं की प्रताड़ना से दुखी होकर आत्महत्या कर ली। यह पढ़ते ही मन व्यथित हो उठा। कहीं भीतर एक टीस सी उठी कि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को किस दिशा में ले जा रहे हैं? वे मूल्य, वे संस्कार जिन पर हमारी संस्कृति ने सदियों तक गर्व किया, आज क्यों फीके पड़ते जा रहे हैं?

बच्चों को अच्छे से अच्छा देना, उनकी हर ज़रूरत पूरी करना, उन्हें तकलीफ़ से दूर रखना—यही तो हर माता-पिता की स्वाभाविक भावना होती है। लेकिन जब यही भावना अति हो जाए, तो वही बच्चों को जिम्मेदार बनने से रोक देती है। जब कोई बच्चा जीवन में कभी कोई अभाव नहीं झेलता, तो वह किसी और के अभाव को कैसे समझेगा? जब उसे कभी कष्ट सहने की ज़रूरत ही महसूस न हुई हो, तो वह अपने माता-पिता के दुख को कैसे महसूस कर पाएगा?

हमने बच्चों को भौतिक सुख तो भरपूर दिए, लेकिन जीवन की सच्चाइयाँ नहीं सिखाईं। हमने उन्हें उड़ना तो सिखाया, पर जमीन से जुड़ना नहीं सिखाया। यही कारण है कि जब माता-पिता उम्र के उस मोड़ पर पहुँचते हैं जहाँ उन्हें संबल की ज़रूरत होती है, तो कई बार उनके अपने ही बच्चे उनका सहारा बनने के बजाय उन्हें बोझ समझने लगते हैं।

यह केवल एक परिवार की कहानी नहीं है, यह हमारे बदलते सामाजिक ढाँचे की त्रासदी है। हमें इस पर गंभीरता से विचार करना होगा।
क्या हम अपने बच्चों को केवल पढ़ाई, करियर और सफलताओं के लिए तैयार कर रहे हैं? या उन्हें इंसान बनने की शिक्षा भी दे रहे हैं? क्या हम उन्हें संवेदनशीलता, सहानुभूति, सहनशीलता जैसे मानवीय गुणों से भी परिचित करा रहे हैं?

हमें यह समझना होगा कि परवरिश केवल सुविधाएं देने का नाम नहीं, बल्कि बच्चों को जीवन की चुनौतियों से जूझना सिखाने का भी नाम है। उन्हें संघर्ष, धैर्य और कृतज्ञता का पाठ पढ़ाना ज़रूरी है

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