संस्मरण — लाल पानी — मैत्रेयी त्रिपाठी

सीता की अम्मा..कहाँ हो? कुछ सुनी हो..जो खलिहान वाला ठूठा पेड़ है वो भी डूब गया ।
सन् ८३ के बाद ऐसा पहली बार हुआ है,बाढ़ भयंकर रूप ले रही है।
हाँ सुन लिये…अब का करे हलक से पानी ना घोटें? इस कर्मनाशा के लाल पानी ने तो सच में हमरा करम नाश दिया ।
गवना करके आये थे सारा समान पानी ने लील लिया अब बेटी की शादी को जोड़ के रक्खे सामान पर आफ़त आन पड़ी ।
ये तो तुम सच कह रही हो सीता की माँ,अब तो जान बच जाये बस,
इंद्रदेव भी तो मान नहीं रहे है, खपरैल की छत भी जगह-जगह से टपक रही है,(चारों ओर शांति के बीच ज़ोर की आवाज़ के साथ लोगों के चिल्लाने की भी आवाज़े आने लगती है।)
ए सीता के बाबू उठ के देख आओ
किसकी बलि चढ़ी,ना जाने कितनों को अपने साथ लेकर जायेगा ये लाल पानी, साधू कक्का की मड़ई गिर गयी जानवर दब गये,कक्का नहीं रहे,पानी अब मिट्टी काटने लगा है,अब तो सब भगवान भरोसे है।
हे दैव अब ना बरसिये,”अब तो हमारे आसुओं से ही बाढ़ आ जायेगी”, अजीब सी मनहूसियत है इस लाल पानी में ,चार ,छह दिन में चला जाता है पर पूरे जवार की कमर तोड़ जाता है।
पूरी रात मेघ बरसते रहे,और उसके साथ इस प्रलय को महसूस कर गाँव
वालों के नैन भी, सुबह के चार ही तो बजे थे अफरा तफ़री की आवाज़ सुनकर आँख खुल गयी ।
पंडित जी उठकर जाते तब तक
लोग एक महिला को चारपाई पर लेकर आते दिखे।
अरे बाबा बड़ा गजब हो गया, दुख़्ख़ी की अम्मा को सांप काट लिया, आप झाड़ देते नहीं तो मर जायेगी,
ए सीता की अम्मा फुल (कांसे)की थाली लेकर आना,पंडित जी ने दुख्खी के बापू की पीठ पर थाली रखी और वह थाली तो जैसे फ़ेविकोल के जोड़ की तरह चिपक गयी, पंडित जी मंत्रों से फूँक मारी हुई मिट्टी को थाली पर ज़ोर से मारते और दुख्खी की अम्मा हाथ पैर हिलाने लगी, पूरे दो घंटे की कड़ी मेहनत के बाद वह उठ बैठी,तब जाकर लोगों ने राहत की साँस ली ।
अरे भइया ये बाढ़ अकेले थोड़े आती है ,लेकर आती साँप,बिच्छू,गोजर,गोवर्धन जी बड़े कृतज्ञ भाव से पंडित जी को देख रहे थे,पंडित जी मुस्कुरा कर बोले,ए गोवर्धन देखो हम नहीं बुलाते हैं किसी को झाड़ फूंक करने,पर मजबूरी में करना पड़ता हैं,आज न बाढ़ आया है,रोड देखे हो गड़हा हो गया है,रासबिहारी को धामीन काटी थी पिछले साल अस्पताल पहुचों ना पाये,भगवान के पास पहुँच गये ।
गोवर्धन तो पंडित जी के पैरों में गिर गए,हमको भी विद्या सीखनी है ।
पंडित जी मुस्कुरा कर बोले अरे पहले इस लाल पानी से तो बच जाये,पता नहीं कल का दिन कितना भारी होगा ।
दुलार कक्का पानी को निहारते हुए बोले,पानी जब तक ठहरा है कितना सुंदर लगता है, तब तक बिरजू ने चिल्लाकर कहा पानी घट रहा है।
सभी काली माता और डीह बाबा की अपनी अपनी मनौती को इसका कारण बताने लगे ,
शाम 4 बजे का समय तय हुआ दुबारा पानी मापने का।
और वहीं एक 10 साल की लड़की “मैं”स्थिर लाल पानी को घूर रही हूँ जैसे वह मेरी इन छोटी आँखों से डर कर वापस लौट रहा है ,जी हाँ पर कारण मेरी आँखे नहीं परन्तु अपने हिस्से का आटें का हलवा जो मैंने घूस के रूप में शिवाला के भोलेनाथ को चढ़ाया था ,उस पर विश्वास था मुझे ।
अब सबकी आँखें बिरजू और उनके हाँथ की लाठी पर टिकी हैं,
पानी पाँच इंच नीचे गया है,और इस ठूँठे पेड़ पर पत्तियाँ आ गयी हैं ।
सबने राहत की साँस ली,
पानी चला गया,ठूंठा पेड़ हराभरा हो गया, जंगली बेर लगती है उसपर,लाल पानी चला गया, फिर कभी नहीं आयी बाढ़, पर मेरे मस्तिष्क के विचारों की आँधी एक जगह रुकती है,लाल पानी सिर्फ़ लेकर नहीं जाता,देकर भी जाता है,जैसे ठूँठे पेड़ को जीवन ।।
मैत्रेयी त्रिपाठी
मौलिक सृजन