संस्मरण – मज़हब हुआ बदनाम — महेश तंवर

आज इंसान इंसान को इंसानियत की नजर से न देख कर मज़हब के नाम पर हैवान समझ लिया है। वसुधैव कुटुंबकम् वाली उक्ति अब केवल कहने व सुनने के लिए रह गई है। प्यार -प्रेम शब्द तो उनके विवेक में हैं ही नहीं। मज़हब का डींग हांकने वाले दूसरे मज़हब के लोगों के खून के प्यासे हो रहे हैं।आज हर इंसान बारुद के ढेर पर बैठा हुआ है।वह मज़हब के नाम पे ख़ून की होली खेल रहा है।
आज पहलगाम की मानवता शर्मसार कर देने वाली है। निर्दोष पर्यटकों ने ऐसा क्या कह दिया कि उन्हें अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी।हर आत्मा में रहने वाला अल्लाह -ईश्वर को यही खेल देखना था? धिक्कार है उन दरिंदों को, कुत्सित है उन माताओं की कोख और घृणित है उन पिताओं के संस्कारों को जिन्होंने मज़हब के नाम पर हैवान बन कर निर्दोष पर्यटकों की जान ले लिए।
यहां इंसान ही इंसानियत को गंवा कर सामाजिक व राजनीतिक पहलू को मजबूत करने के लिए खून से हाथ धोने में हिचकते नहीं। उनके लिए जाति -मजहब केवल स्वार्थ पूर्ति के लिए एक आधार मात्र है। आज बदले की भावना से देश आग उगल रहा है।जब तक एक दूसरे में प्यार -प्रेम, विश्वास नहीं जगेगा तब तक हैवानियत की चीख-पुकार निकलती रहेगी। जिसके दमन के लिए सारी मानव जाति को एकजुट होकर शैतानों को नेस्तनाबूद करना होगा।
स्वरचित
महेश तंवर सोहन पुरा
नीमकाथाना (राजस्थान)