संवेदनहीन विकसित मानव…. अनीता चतुर्वेदी

मानव जैसे-जैसे विकास कर रहा है वैसे-वैसे वह संवेदनहीन होता जा रहा है
प्रकृति की गोद में जन्मा मानव, कभी सबसे अधिक संवेदनशील प्राणी था। छोटी-सी पीड़ा भी उसे भीतर तक झकझोर देती थी। दूसरों के दुख उसकी आँखों में नमी ला देते थे। पर आज जब वह चाँद-तारों को छूने लगा है, ऊँची अट्टालिकाओं में रहने लगा है, विज्ञान के चमत्कारों से अपने जीवन को सुविधाजनक बना लिया है — तो उसी अनुपात में उसका हृदय सूखता जा रहा है।
भौतिक विकास की इस अंधी दौड़ में मानो उसकी आत्मा कहीं पीछे छूट गई है। चमकती-दमकती दुनिया के बीच वह अपने भीतर उठती करुणा की हल्की सी लहर को भी दबा देता है। आज के समय में यदि कोई सड़क पर गिरा पड़ा हो, तो पहले लोग उसे उठाने दौड़ते थे, अब मोबाइल कैमरे उठते हैं। किसी की पीड़ा अब संवेदना नहीं जगाती, बल्कि एक क्षणिक चर्चा का विषय बन जाती है।
मनुष्य ने जितनी ऊँचाई भौतिक जगत में प्राप्त की है, उतनी ही गहरी खाई उसने अपने भीतर संवेदनाओं की खोद ली है। रिश्तों में औपचारिकता, बातों में स्वार्थ और व्यवहार में निष्क्रियता का जाल बिछता जा रहा है। अब प्रेम प्रदर्शन में दिखावा अधिक है, अपनापन शब्दों तक सीमित रह गया है।
मुझे आज भी वो दिन याद है जब मैं स्कूल से आ रही थी। ठंड का मौसम था और बारिश हो रही थी।
सड़क किनारे एक भीगती हुई वृद्धा को देखकर मैंने अपनी कार रोकी । उस वृद्धा के हाथ काँप रहे थे,उनका शरीर बुरी तरह काँप रहा था। आसपास से अनगिनत गाड़ियाँ गुजर रही थीं, कोई नहीं रुका। मैंने अपनी शॉल उतारी और उन्हें ओढ़ा दी। कार में उन्हें बैठाकर सुरक्षित जगह तक छोड़ दिया उस वृद्धा की आँखों में जो कृतज्ञता थी, वह आज भी मेरी आत्मा को गुनगुना देती है।
पर उस दिन एक सवाल मेरे भीतर गहराई तक उतर गया , क्या विकास ने हमारी संवेदनाओं को इतना पाषाण बना दिया है कि हमें दूसरे के काँपते हाथ भी नहीं दिखते?
संवेदनाओं के अभाव ने मानव को भीतर से इतना खोखला कर दिया है कि अब वह प्रकृति की कराह भी नहीं सुन पाता, अपनों की चुप पीड़ा भी नहीं पहचान पाता। उसे बस अपनी गति बढ़ानी है, चाहे इसके लिए वह कितने ही भावनात्मक सम्बन्ध रौंदता चला जाए।
समय की पुकार है कि हम रुकें — थोड़ी देर के लिए ही सही। अपनी आत्मा की गहराइयों में झाँकें। वहाँ जहाँ अभी भी करुणा का कोई दीपक टिमटिमा रहा है। उसे फिर से प्रज्वलित करें। वरना वह दिन दूर नहीं जब मानव होने का अर्थ ही केवल भौतिक प्रगति रह जाएगा, और संवेदनाओं का सागर सूखकर मात्र एक रेगिस्तान बन जाएगा।
असली विकास वही है जिसमें तकनीक के साथ मानवता का भी उत्थान हो। जब हम दूसरों के आँसू पोंछने को तत्पर हों, जब किसी के दर्द से हमारा दिल भी दहले, तभी हम सच्चे अर्थों में विकसित कहलाएंगे।
अनीता चतुर्वेदी
(ग्रेटर नोएडा)