वीर प्रतापी महापुरुषों की कथा –पल्लवी राजू चौहान कांदिवली, मुंबई

‘घर का भेदी, लंका ढाए’ यह कहावत अपने आप में एक प्रमाण है।
इतिहास गवाह है कि वैदिक काल से मध्यकाल तक महान विभूतियों ने हमारे भारत देश के लिए अपना समर्पित कर दिया था। यही कारण है कि हमारे भारत को महान इसलिए कहा जाता है क्योंकि हमारे देश में पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप और संभाजी महाराज जैसे वीर प्रतापी महापुरुषों ने जन्म लेकर हमारी धरती को पावन किया था। मुगल और विदेशी आक्रांताओं ने जिसतरह से हमारे देश को गुलामी की ज़ंज़ीर में जकड़ रखा था, उससे मुक्त होने में हमें बरसों तक गुलामी का जीवन जीना पड़ा था। इसका कारण एक ही था। हमारे देश में गद्दारों की कमी नहीं थी। यदि कोई देशभक्त और राष्ट्रभक्त अपने सांसारिक जीवन को त्याग कर धरती माँ के लिए समर्पित होने के लिए तैयार थे, तो कुछ गिने चुने गद्दार धरती की मिट्टी से गद्दारी करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। उनकी गद्दारी के कारण ही, जिनकी हमारे वीर सपूतों से लड़ने की क्षमता नहीं थी, उन्होंने हमारे शूरवीर राजाओं को धोखे से मारा था।
मुगल और ब्रिटिश दोनों ने भारत पर लंबा शासन किया था। नीचे उनके शासन की अवधि दी गई है:
मुग़ल शासन
प्रारंभ: 1526 ई. में बाबर ने पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहीम लोदी को हराया।
अत: लगभग 1857 की क्रांति के बाद बहादुर शाह जफर को हटाकर मुग़ल शासन पूरी तरह खत्म कर दिया गया। इनके राज करने की कुल अवधि लगभग 331 वर्ष थी।
ब्रिटिश शासन
प्रारंभ: 1757 ई. प्लासी की लड़ाई – ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल पर नियंत्रण पाया।
औपचारिक शासन की शुरुआत: 1857 की क्रांति के बाद सत्ता सीधे ब्रिटिश सरकार के हाथ में आ गई।
अत: 1947 ई. (भारत को स्वतंत्रता मिली)
गुलामी कुल अवधि:
यदि ईस्ट इंडिया कंपनी से गिनें: 1757 से 1947 तक लगभग 190 वर्ष।
यदि सीधे ब्रिटिश सरकार से गिनें: 1858 से 1947 = 89 वर्ष।
मुगल शासन: 331 साल (1526–1857)
ब्रिटिश शासन: 190 साल (1757–1947)
तो आप समझ सकते हैं कि 521 वर्ष तक हमारे वीर सपूतों अपना स्वराज स्थापित करने के लिए लगातार विदेशी आक्रांताओं और मुगलों से लड़ाईयाँ लड़ी थी।
पृथ्वीराज चौहान और जयचंद की कथा भारतीय इतिहास और लोककथाओं में एक भावनात्मक, राजनीतिक और वीरता से भरी हुई कहानी है। इसमें प्रेम, प्रतिद्वंद्विता, और गद्दारी का गहरा चित्रण है। नीचे इस कथा का सारांश प्रस्तुत है:
1. पृथ्वीराज चौहान ‘चौहान वंश’ के राजा थे। ये अजमेर और दिल्ली पर शासन करते थे। पृथ्वी राज चौहान वीर, उदार और न्यायप्रिय शासक माने जाते थे। पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी को 17 बार हराया था। इन्होंने मोहम्मद गौरी के साथ दो प्रसिद्ध युद्ध लड़े – तराइन की लड़ाइयाँ (1191 और 1192 ई.)
उस वक्त जयचंद कन्नौज (उत्तर प्रदेश) का गाहड़वाल वंश के राजा थे। वह बहुत शक्तिशाली था, पर वह पृथ्वीराज चौहान का प्रतिद्वंद्वी था। दोनों के बीच राजनीतिक प्रतिस्पर्धा बनी ही रहती थी, और व्यक्तिगत शत्रुता भी बहुत थी।
संयोगिता की प्रेमकथा:
जयचंद की पुत्री संयोगिता पृथ्वीराज से प्रेम करती थी। पृथ्वीराज भी उसे बहुत पसंद करते थे, पर जयचंद इन दोनों के रिश्ते के खिलाफ था। जयचंद ने अपनी बेटी का स्वयंवर रचाया और पृथ्वीराज को आमंत्रित नहीं किया था। अपमान स्वरूप उसने पृथ्वीराज की मूर्ति द्वारपाल की तरह दरवाजे पर रखवाई।
स्वयंवर के दिन संयोगिता ने उसी द्वारपाल (मूर्ति) को वरमाला पहनाई थी।
उसी समय पृथ्वीराज वहाँ छिपे हुए थे, और वे संयोगिता को अपने घोड़े पर बिठाकर भाग निकले। यह घटना जयचंद के लिए भारी अपमान साबित हुईं थी।
गद्दारी और युद्ध:
इस अपमान के बाद जयचंद ने पृथ्वीराज के विरुद्ध मन में बैर ने जगह ले ली थी। लोककथा के अनुसार, उसने मोहम्मद गौरी को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया और उसका अप्रत्यक्ष रूप में समर्थन किया। 1192 में गौरी ने पृथ्वीराज को हराया और बंदी बना लिया।
अंततः एक प्रसिद्ध कथा के अनुसार पृथ्वीराज चौहान को अंधा कर दिया गया था। पृथ्वीराज चौहान भले ही अंधा कर दिया था, लेकिन उनके कवि मित्र चंदवरदाई ने अपनी कविता के माध्यम से उन्हें मोहम्मद गौरी जहाँ मौजूद थे, उनकी दूरी के बारे में जानकारी दी। पृथ्वीराज
“चार बाँस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण
ताऊ पर सुलतान है, मत चूको चौहान”
पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज चौहान और चंदबरदाई की मित्रता की इस कहानी को भले ही काल्पनिक बताते हैं, लेकिन कुछ तथ्य जो इतिहास में दर्शाया गया है, उसके आधार पर इसे काल्पनिक कहना उचित नहीं है।
बाद में उनके मित्र चंदबरदाई ने एक योजना बनाकर पृथ्वीराज का मार्गदर्शन करते हुए मोहम्मद गौरी की हत्या करवाई थी। चंदबरदाई
यह कथा “पृथ्वीराज रासो” नामक महाकाव्य में वर्णित है, जो आंशिक रूप से ऐतिहासिक और आंशिक रूप से काल्पनिक मानी जाती है।
अगर उस वक्त हमारे राजाओं में एकता का भाव होता, तो भारत पर विदेशी आक्रमणों को रोका जा सकता था।
जयचंद की गद्दारी भारतीय लोकसंस्कृति में आज भी “गद्दार” शब्द का पर्याय बन चुकी है।
महाराणा प्रताप
मान सिंह और राजा टोडरमल
आमेर का राजा मान सिंह, जो अकबर का सेनापति था। एक सेनापति जो राजपूत थे, वो राजा मान सिंह अकबर के पक्ष में हल्दी घाटी के युद्ध में लड़ाई लड़ी थी। मान सिंह का अकबर के लिए लड़ना महाराणा प्रताप के लिए गद्दारी के समान माना गया, क्योंकि मान सिंह भी एक राजपूत था।
राजा टोडरमल जैसे कुछ अन्य राजपूत भी अकबर की सेवा में थे, जिसे राणा प्रताप के समर्थक गद्दार मानते हैं।
संभाजी महाराज (छत्रपति शिवाजी महाराज के पुत्र)
गद्दार: कन्होजी और गनोंजी शिर्के, संभाजी के रिश्तेदार ही थे, लेकिन उन्होंने संभाजी के खिलाफ औरंगज़ेब की मदद की थी। उन्होंने संघमेश्वर पन्हाला किला तक जानेवाले छोटे रास्ते की जानकारी दे दी थी, जिसवजह से मुगल धोखे से हमला कर दिए। पन्हाला किले में मराठा के ३०० से ४०० सिपाही थे और मुगल सेना के ५००० सिपाही थे। इतना होने के बावजूद संभाजी महाराज की सेना ने पूरी रणनीति के साथ मुगलों का सामना किया था। यदि संभाजी महाराज के साथ धोखा नहीं होता, तो उनसे लड़ने की क्षमता किसी भी मुगलों में नहीं थी। स्वराज के लिए इन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया, लेकिन इन्होंने मुगलों की शर्तों को स्वीकार नहीं किया।
उन्हीं की गद्दारी के कारण संभाजी को मुगलों ने पकड़ लिया और बाद में उन्हें क्रूरतापूर्वक मारा गया।
पग पग पर गद्दारों ने अपने स्वार्थ के लिए विदेशी आक्रांताओं और मुगलों साथ देकर हमारे देश के साथ गद्दारी की है, इन्हीं गद्दारों के कारण हमारी जनता इन क्रूर शासकों द्वारा प्रताड़ित किए जाते रहे हैं। इतना होने के बावजूद देशभक्त और राष्ट्रभक्त सेनानियों ने कभी हार नहीं मानी।
आज जो पहलगाम हमला हुआ है, वह भी गद्दारों की ही देन है। ये गद्दार जिस थाली में खाते हैं उसी थाली में छेद करते हैं। यह तो सदियों से चला आ रहा एक कुकृत्य है, जो अक्षम्य है।
यहाँ पर एक तथ्य सही बैठता है
“घर का भेदी, लंका ढाए”
जय हिंद
लेखिका: पल्लवी राजू चौहान
कांदिवली, मुंबई