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ये कैसा भाई — पवन मल्होत्रा एडवोकेट

शून्य की तरफ निहारती हुई स्वर्णा सोच रही थी कि इतनी बड़ी गलती उसने कैसे कर दी, क्यूँ अंधे होकर विश्वास किया एक उस इंसान पर जो छोटी छोटी बात पर हर एक से मुँहजोरी करता था जो उसने गलती से मुंँहबोला बड़ा भाई बना रखा था।
चार साल पहले की ही बात है कि फेसबुक पर स्वर्णा जोकि एक नवोदित लेखिका थी, ने कुछ मित्रों के साथ मिलकर ग्रुप बनाया था वही पर उसकी बात सुधाकर से हुई थी जो उसकी तरफ काफी स्नेह दिखाते थे।सुधाकर जिनकी बीवी की मृत्यु बहुत पहले हो चुकी थी ग्रुप में काफी सक्रिय रहते थे। उनको वरिष्ठ होने के नाते सबने अपना बड़ा भाई बना लिया इसलिए वो स्वर्णा को भी छोटी बहन कहने लग गए और उससे राखी भी बंधवाने लग गए थे लेकिन अंदरुनी भाव कुछ और ही थे सुधाकर के, वो स्वर्णा पर अपना एकाधिकार समझने लग गए थे।
हर दूसरे दिन सुधाकर ग्रुप में किसी ना किसी सदस्य से लड़ कर ऐसा माहौल बना देते कि उसे ग्रुप छोड़ने पर मजबूर कर देते। सुधाकर सारा दिन फोन पर और इनबॉक्स में स्वर्णा से बतलाते रहते थे और जब कभी स्वर्णा व्यस्त होने के कारण जवाब नहीं दे पाती थी तो उसके साथ लड़ना शुरू कर देते थे। स्वर्णा ना चाहते हुए भी कई बार चुप रह जाती कि बड़े भाई को कुछ बुरा ना लग जाये।
इसी दौरान स्वर्णा के लेखन कार्य को एक मुकाम हासिल हुआ, उसके दो एकल संग्रह किताबों के रूप में साहित्य जगत में अपना नाम बना गए, साहित्य के क्षेत्र में स्वर्णा एक प्रतिष्ठित लेखिका के रूप में स्थापित हो गयी थी। तब से स्वर्णा को विभिन्न साहित्यिक मंचों पर विशिष्ट अतिथि के तौर पर बुलाया जाने लगा।
कामयाबी मिलने के साथ काफी नए लोग स्वर्णा के साहित्यिक ग्रुप से जुड़ने लगे थे। घरबार के साथ लेखन के कार्य में व्यस्त होने के कारण वो अब सुधाकर तो क्या, किसी से भी ज्यादा बातचीत नहीं कर पाती थी।
बस यही बात सुधाकर को खल गयी। उसने बात बात पर स्वर्णा को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया, अपनी गलती होने पर भी उनका रोना स्वर्णा को चुप करा देता था।
अंततः एक दिन सुधाकर ने किसी बात से नाराज हो कर उसकी राखी पर ही सवाल उठा दिया, जब स्वर्णा ने उनको डांट पिला दी तो सुधाकर ने चिढ़ कर उसके चरित्र पर ही सवाल उठा दिये कि नए लोगों के साथ रहो अब।
ये सुनते ही स्वर्णा के पैरों के नीचे से ज़मीं खिसक गयी, जिस सुधाकर को उसने अपने सगे भाई से बढ़ कर इज्जत दी थी, उन्होंने ही उसके मान सम्मान पर सवाल खड़े कर दिए थे।
सुधाकर की विकृत मानसिकता के चलते चहकते रहने वाली स्वर्णा एक पाषाण में परिवर्तित हो गयी थी।
कुछ दिन सदमे में रहने के बाद स्वर्णा ने अपने आप को सम्भाला और सुधाकर को एक बुरा सपना समझ कर अपने पर्सनल हर टॉपिक से अलग किया और फिर से धीर गम्भीर होकर अपने लेखन कार्य में तल्लीन हो गयी।
लेकिन उसके मन को एक बात रह रह कर आज भी कचोटती रहती है कि क्या भाई भी ऐसे होते हैं।

पवन मल्होत्रा एडवोकेट

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