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अधजल गगरी छलकत जाए… अनीता चतुर्वेदी

 

कुछ कहावतें उम्र भर हमारे साथ चलती हैं — बिना शोर किए, भीतर कोई दर्पण लिए।
“अधजली गगरी छलके जाए…” — यह कहावत मेरे लिए मात्र लोकोक्ति नहीं, बल्कि एक जीवन-दिशा बन गई है।

शिक्षण, लेखन और जीवन के अनुभवों ने सिखाया कि जो अधूरा होता है, वही सबसे अधिक जताने की कोशिश करता है। जबकि जो भीतर से पूर्ण होता है, वह शांत रहता है — सहेज कर, संयम से, जैसे भीगी हुई मिट्टी में खिलता हुआ विश्वास।

कभी-कभी जीवन की सबसे सधी हुई बातें बहुत साधारण प्रतीकों में छुपी होती हैं। यह कहावत (“अधजली गगरी छलके जाए…”) भी ऐसा ही एक प्रतीक है, जो मुझे बार-बार सोचने पर मजबूर करता है। गगरी यानी मटकी – जो आधी भरी हो, वह थोड़ी सी हरकत पर छलक जाती है। पर जो पूरी भरी हो, वह स्थिर रहती है – अपनी गंभीरता और संतुलन में।

यह कहावत सिर्फ मिट्टी के बर्तन की नहीं, बल्कि हमारे समाज, हमारे व्यवहार और हमारे रिश्तों की भी तस्वीर है। मैंने कई बार महसूस किया है कि जो लोग खुद को सबसे ज़्यादा जताते हैं, उनके भीतर अक्सर सबसे ज़्यादा खालीपन होता है। वे बात-बात पर अपनी राय रखते हैं, दूसरों को टोकते हैं, हर चर्चा में खुद को शामिल करना चाहते हैं – मानो अपनी अधूरी गगरी को छलकाकर सबको दिखाना चाहते हों कि “देखो, मैं भी भरा हूँ।”

जब मैंने शिक्षण में कदम रखा, तब एक बात धीरे-धीरे स्पष्ट हुई – जो छात्र सबसे ज़्यादा बोलते हैं, वे हमेशा सबसे ज़्यादा जानते हों – यह ज़रूरी नहीं होता। और जो चुपचाप सुनते हैं, गहराई से सोचते हैं, उनके अंदर समझ का भंडार होता है। यही बात हम बड़ों में भी देखते हैं। दिखावे से भरे लोग अक्सर सतही होते हैं, और शांत लोग – भीतर से भरे हुए।

कभी रिश्तों में भी यह बात उतरती है। जो इंसान हर पल अपने प्रेम या अपनत्व की बात करता है, वह जरूरी नहीं कि सचमुच उतना संवेदनशील हो। और जो बिना कहे, बिना जताए, हर बार साथ खड़ा हो – वही असल में पूरी गगरी होता है। उसका छलकना दिखावे में नहीं, ज़रूरत पर होता है – और वही सच्चा होता है।

मेरे अपने अनुभवों ने सिखाया है कि अधूरा ज्ञान, अधूरी समझ या अधूरी परिपक्वता – जब खुद को ज़्यादा ज़ाहिर करती है, तो वह न केवल खुद को शर्मिंदा करती है, बल्कि सामने वाले के मन में भी एक प्रश्न छोड़ जाती है – कि क्या वास्तव में गहराई का कोई मोल नहीं बचा?

इसलिए मैं हमेशा यह प्रयास करती हूँ कि मेरी गगरी अधूरी न रहे। जितना जानूँ, उतना ही कहूँ। जितना अनुभव करूँ, उतना ही बाँटूँ। और सबसे ज़रूरी – जब मेरी गगरी भरने लगे, तो उसमें स्थिरता आए, छलकने की नहीं,गंभीरता की कला हो।
और एक प्रेरणा भी। यह मुझे याद दिलाता है कि ज्ञान, प्रेम, समझ और अनुभव – इनका असली मूल्य तभी है जब वह भीतर से प्रकाशित हो ।
इसी संदर्भ में मैं कुछ पंक्तियां रखती हूं..

“अधूरी बातों का शोर बहुत है,
हर मोड़ पर बस खुद का ज़िक्र है।
जो भरा हो, वो चुपचाप बहे,
जैसे सागर का गहरा स्वभाव।

शब्द नहीं, दृष्टि बोले जहाँ,
वहाँ पूर्णता की पहचान मिले,
जहाँ कम हो, वहाँ ही शोर हो,
जहाँ भराव हो, वहाँ ठहराव हो।”

यह लेख और उससे जुड़ी यह कविता — मेरे अपने आत्मसंवाद का परिणाम हैं। यह मेरे सोचने, ठहरने और खुद से मिलने की प्रक्रिया है। शायद आप भी इन पंक्तियों में कहीं अपना प्रतिबिंब पाएँ,
और अगर ऐसा हो,
तो मेरी गगरी सच में भर गई होगी…

अनीता चतुर्वेदी
(ग्रेटर नोएडा)

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