हिंदी — अलका गर्ग,गुरुग्राम

लगभग २०साल पहले की बात है मैं,मेरे पति और दोनों बेटियाँ ट्रेन से राँची से दिल्ली जा रहे थे। हमारे रिज़र्व डिब्बे में किसी स्टेशन से एक संन्यासी जैसा दिखने वाला व्यक्ति चढ़ा।इसे चार पाँच स्टेशन दूर ही जाना था।दिन का समय था तो सभी यात्री जागे हुए थे।कोई अख़बार, किताब पढ़ रहा था।खाना,ताश का खेल,गपशप चल रही थी।काफ़ी देर खड़ा रहने के बाद उस संन्यासी ने बैठने के लिए इधर उधर नज़र दौड़ाई।उसकी परिष्कृत हिन्दी भाषा और दाढ़ी,धोती कुर्ता की वजह से जगह ख़ाली होने पर भी लोगों ने उसे बैठने की जगह नहीं दी और फैल कर बैठ या लेट गये और आगे जाओ,आगे जाओ बोलने लगे।
मेरे पति भी भी बैठ कर अख़बार पढ़ रहे थे।उन्होंने अपनी आदत के अनुसार थोड़ा सरक कर उनको जगह दे दी वे धन्यवाद बोल कर बैठ गये।इतने अपमान के बाद भी उनके चेहरे पर सौम्य मुस्कुराहट थी।मेरी बेटियाँ भी उनको कौतुक से निहार रहीं थीं।उन महाशय ने मुस्कुराते हुए दोनों का नाम,कक्षा,शहर और स्कूल का नाम पूछा।बड़ी बेटी ने बताया।दोनों कॉन्वेंट में पढ़ती थीं तो हिन्दी थोड़ी अशुद्ध बोल रहीं थीं।उसके बाद तो उन महोदय ने इतनी अधिक धाराप्रवाह अंग्रेज़ी में मेरी बेटियों और पति से बात करनी आरम्भ की कि उनको भगाने वाले आस पास के लोग भी उठ कर बैठ गये और हैरानी से देखने लगे।
उनकी बुद्धि और ज्ञान के असीम भंडार ने सभी को निःशब्द कर दिया।दो घंटे कैसे निकल गये पता ही नहीं चला।वे साथ आठ देशी विदेश डिग्री लिए हुए संभ्रांत पुरुष थे।सादा जीवन उच्च विचार वाले मातृभूमि भक्त।
उतरने से पहले उन्होंने अपनी जेब से महँगा पेन निकाला और मेरी बेटी की जेब में लगा दिया।तुमसे बात करके समझ गया कि तुम बहुत बुद्धिमान हो।तुम इस पेन से अपनी दसवीं की परीक्षा देना।ईश्वर साथ रहेंगे।शुभकामना देकर वे सज्जन उतर गये।
मेरी बेटी के दसवीं में 98% नंबर आये।आज शादी के बाद भी उस अद्वितीय चरित्र को नहीं भूली है।उसके पास आज भी यादगार के रूप में वाह पेन मौजूद है।
कितना शर्मनाक है कि हिन्दी भाषा और देशी पहनावे से अपने ही हिंदी भाषी देश में हम किसी के व्यक्तित्व को तौलते हैं।
अलका गर्ग,गुरुग्राम