जातीय जनगणना: जरूरी है, लेकिन सबके लिए समान हो : जे. पी. शर्मा

देश में जातीय जनगणना को लेकर फिर से बहस तेज हो गई है। कई राजनीतिक और सामाजिक संगठन इसकी मांग कर रहे हैं ताकि पिछड़े वर्गों की वास्तविक स्थिति का आंकलन किया जा सके और नीतियाँ उसी अनुरूप बनाई जा सकें। लेकिन इस प्रक्रिया को लेकर एक अहम सवाल भी उठ रहा है — क्या जातीय जनगणना केवल हिंदू समाज तक सीमित रहनी चाहिए?
वास्तव में, जातियां केवल हिंदू समाज की सच्चाई नहीं हैं, बल्कि भारत के लगभग हर धर्म और समुदाय के भीतर भी वर्गीय और जातीय विभाजन मौजूद हैं। मुस्लिम समाज में भी शेख, सैयद, पठान, मल्लाह, अंसारी जैसे सामाजिक वर्ग हैं, तो ईसाई, सिख, बौद्ध समुदायों में भी जाति आधारित पहचान देखने को मिलती है।
ऐसे में अगर सरकार केवल हिंदुओं की जातियां गिनती है, तो यह कदम आधिकारिक रूप से भेदभावपूर्ण माना जाएगा। इससे न केवल सामाजिक असंतुलन बढ़ेगा, बल्कि सरकारी योजनाओं और आरक्षण नीतियों की विश्वसनीयता भी प्रभावित हो सकती है।
जातीय जनगणना का उद्देश्य केवल आंकड़े इकट्ठा करना नहीं है, बल्कि सामाजिक न्याय और समानता की दिशा में एक सार्थक पहल है। लेकिन यह तभी सफल होगी जब सभी समुदायों को इसमें समान रूप से शामिल किया जाएगा।
भारत एक विविधता भरा राष्ट्र है — यहाँ धर्म बदलने से सामाजिक ढांचा नहीं बदलता। इसलिए यह आवश्यक है कि यदि जातीय जनगणना हो, तो वह सभी धर्मों, वर्गों और समुदायों में मौजूद जातीय संरचनाओं को उजागर करे। इससे सरकार को सभी वर्गों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को सही रूप में समझने और योजनाएँ बनाने में मदद मिलेगी।
यह समय है कि हम जातीय गणना को केवल चुनावी मुद्दा न बनाकर, सामाजिक सुधार और समावेश की दिशा में एक मजबूत कदम बनाएं — बिना किसी भेदभाव के।
जे पी शर्मा / जर्नलिस्ट