कुछ देर और रुक जाती बेटा — डॉ निर्मला शर्मा की कलम से

आज जब पीहर से विदा लेकर ससुराल/ शहर के लिए निकल रही थी, तब वो दृश्य, वो शब्द और वो भावनाएँ दिल में जैसे स्थायी घर बना गईं।
पिता जी ने दरवाजे तक आकर सिर्फ इतना कहा — “कुछ देर और रुक जाती बेटा…”
इतना कहकर वो चुप हो गए, मगर उनकी आँखों की कोरें भीग गई थीं। शायद वो कह नहीं पा रहे थे कि “बेटियों के जाने से घर सूना लगने लगता है।” उनके शब्द जितने कम थे, भाव उतने गहरे। उनकी आंखें कितना कुछ कह रही थीं। एक पिता का सारा प्यार, सारी चिंता, और वो आदतें जो उन्होंने मुझे बचपन से हर रोज़ घर में चलते-फिरते देखा था — बस उस एक वाक्य में सिमट आया था।
माँ भी वही खड़ी थी धीरे से बोली — “कुछ भूली तो नहीं?”
उसके इस वाक्य में सिर्फ सामान की चिंता नहीं थी। वो पूछ रही थीं — क्या कोई अधूरी बात रह तो नहीं गई।
वो जानती थीं कि बेटियाँ अक्सर सब याद रखती हैं, लेकिन माँ को लगता है कुछ न कुछ छूट ही जाता है — कभी कोई दुपट्टा, कभी घड़ी, कभी चार्जर, कभी बच्चों के खिलौने।
मैं मुस्कुरा दी और बस पकड़ने के लिए रवाना हो गई। आँसू आंखों की कोर से चुपचाप लुढ़क पड़े।
पीहर से विदाई कोई एक बार की रस्म नहीं होती।
हर बार जब बेटी पीहर लौटकर फिर ससुराल जाती है, तो एक नया ‘विदा’ दिल पर हल्की सी दरार छोड़ जाता है। उसका घर, उसका घर न रह कर मायका हो जाता है।
एक तरह से देखूं तो ससुराल मेरा घर होकर भी घर नहीं है — पर पीहर मेरी जड़ है। जड़ें हमेशा दिखाई नहीं देतीं, पर वो ही सबसे गहरी होती हैं।
बेटियाँ चाह कर भी रुक नहीं पाती। सब कुछ समेटने के बाद भी बहुत कुछ पीछे छोड़ आती है जो शायद किसी को दिखाई नहीं देता। अपना पूरा बचपन और उस बचपन को जीते हुए देखे गए सुनहले सपने सब कुछ तो पीछे छूट जाते हैं। बचपन की मन में बसी कितनी गहरी यादें भी इस मिट्टी के साथ जुड़ी रह जाती है।
घर से निकल कर बस स्टैंड तक आते आते हर याद, हर चीज पीछे छूटती जाती और बेटियाँ विदा हो जाती है। भले ही वे शरीर से कई बार अपने मायके लौटती हैं पर उनकी विदाई हमेशा के लिए हो जाते हैं।
डॉ निर्मला शर्मा