लघु कथा — जीवन की सच्चाई — सीमा त्रिपाठी

कैसे कहूं वह दर्द वह चुभन जो कह नहीं पाते ख्वाबों की तरह रोज सुबह जीने की चाहत में शुरू होती है दिनचर्या सोचती हूं पहले एक कप चाय पी लेती हूं फिर सोचती हूं पहले झाड़ू लगा लूं मंदिर साफ कर लूं फ्रिज में रखा सामान चेक कर लूं यह सब करके फिर नहाना पूजा करना। फिर बनाती हूं एक कप चाय काम के साथ-साथ ठंडी चाय भी पी लेती हूं समय से सबका नाश्ता खाना भी तैयार करती हूं कभी-कभी तो अपनी दवाइयां खाना भी भूल जाती हूं क्या इतना फर्क होता है एक स्त्री और पुरुष में कि स्त्री तो पुरुष की भावनाओं को समझ जाती है लेकिन पुरुष कभी नहीं समझ पाता यह बात समझ में आ ही नहीं रही थी यही सोचती हुई सपना रात के सारे काम निपटाकर सुनील के कपड़ों में प्रेस कर रही थी सुबह सुनील को ऑफिस में पहनकर जाने के लिए और सुनील आराम से बेड पर बैठकर फोन में व्यस्त था जब से सुनील से विवाह हुआ है मेरा आज तक मैं ही उसके सारे काम करती हूं और उसे फिक्र है अपने ऑफिस और अपने कामों की अपने शौक पर भी ध्यान देता है मुझे समझ में नहीं आता उसका ध्यान आज तक मेरी तरफ क्यों नहीं गया क्या मेरी मां के घर से मुझे ऐसे ही लाया था जैसी आज मेरी हालत है पूरा दिन उसके ही कामों में लगी रहती हूं पर कभी संतुष्ट नहीं होता कभी प्यार से मेरा स्वागत नहीं करता कैसी विडंबना है स्त्री और पुरुष की विवाह करने की चाहत तो रखते हैं पर पत्नी को अपना साथी नहीं समझते यही सोचते सोचते उसकी आंख में आंसू आ गए अचानक सुनील का ध्यान उसकी ओर गया और उसने पूछा क्या हुआ तुम रो क्यों रही हो मायके की याद आ रही है उसे कौन बताएं हमेशा मायके की याद ही नहीं आती कभी अपने लिए भी जीना होता हैं मै शांत थी शायद सुनील मेरी खामोश आंखों को देखकर मेरी मानसिक स्थिति को समझ गया और उसने एहसास दिलाया कि वह मेरी हालत तो समझता है पर उसके पास इतना काम है कि वह जाहिर नहीं कर सकता वह मुझसे माफी भी मांग रहा था मैं समझ नहीं पा रही थी क्या करूं बस हंसकर टाल दिया और कहा कोई बात नहीं जिंदगी तो हंस कर ही गुजारनी है खुशी और गम तो आते जाते ही रहते है अपना काम खत्म करके बिस्तर पर सोने चली आई यही सोचते हुए कल क्या नाश्ता बनेगा,क्या खाना बनाऊंगी और कौन सा काम पेंडिंग है जो कल पूरा करना है पता नहीं कब आंख लग गई समझ में देर से आती है मगर जीवन की सच्चाई तो यही है।
सीमा त्रिपाठी
लखनऊ उत्तर प्रदेश