लघु कथा : सींग तेल –राजेश कुमार ‘राज’

बात उन दिनों की है जब हमारा देश श्रीमती इंदिरा गाँधी हत्याकांड के बाद हुए सिख नरसंहार के भयावह घटनाक्रम से उबर रहा था और शांति वापस आ रही थी. अपनी सरकारी नौकरी का प्रशिक्षण पूर्ण करने के पश्चात मैं अपनी पहली पोस्टिंग पर अहमदाबाद जाने के लिए दिल्ली से ट्रेन के माध्यम से रवाना हुआ. १४ नवम्बर १९८४ का दिन था जब सुबह ०८:०० बजे के आसपास मैं अहमदाबाद (जिसे गुजराती भाषा में अमदावाद कहते हैं) रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर दिल्ली से आयी एक ट्रेन से उतरा. अहमदाबाद रेलवे स्टेशन को स्थानीय लोग कालूपुर रेलवे स्टेशन भी बोलते हैं.
रेलगाड़ी से नीचे उतरते ही मुझे लगा कि मैं किसी नयी दुनियां में आ गया था. एक नया इलाका, नयी भाषा, नयी संस्कृति, नए लोग, नया परिवेश और लोगों की नयी वेशभूषा, बस यूं मानिये जैसे मैं किसी और ही लोक में आ गया था. मेरे लिए सब कुछ नया-नया था. आशंकित मन से कुछ ठिठकता हुआ सा मैं रेलवे स्टेशन से बाहर निकला और टैक्सी स्टैंड की तरफ बढ़ गया. वहां जाकर मेरे दिल को थोड़ी शांति मिली जब टैक्सी ड्राइवर्स गुजराती टोन में मुझसे हिंदी में बात करने लगे थे. लेकिन एक हिंदी भाषी को गुजरात की धरती पर देख कर उनके मुखमंडल पर कोई विशेष ख़ुशी या प्रतिक्रिया नहीं झलक रही थी. मेरी भाषाई बाधा दूर हो गयी थी तो मैंने चैन की सांस ली. वहां से मैंने एक टैक्सी ली और अपने विभाग के प्रादेशिक कार्यालय के लिए निकल पड़ा. टैक्सी वाले से किराये पर मैंने कोई बहस नहीं की क्योंकि मुझे यह पता ही नहीं था कि मेरा कार्यालय रेलवे स्टेशन से कितनी दूर था और वहां तक का वाजिब किराया क्या था.
लगभग २० मिनट्स की यात्रा के बाद टैक्सी ने मुझे मेरे गंतव्य पर उतार दिया. अब मैं अपने कार्यालय के मेंन गेट के सामने खड़ा था. किसी अजनबी को खड़ा देख सशस्त्र गार्ड ने मुझसे मेरी पहचान और आने का कारण पूछा. मैंने उसे बताया कि मैं अपनी पहली पोस्टिंग पर आया हूँ. वह मुझे रिसेप्शन तक छोड़ गया जहाँ पर मेरा प्रवेश-पत्र बनाया गया. तत्पश्चात मैंने सम्बंधित शाखा में अपनी जोइनिंग रिपोर्ट दाखिल कर दी और अपने लोकल पोस्टिंग आर्डर की प्रतीक्षा करने लगा. वहां मुझे अपने जैसे चार-पाँच और गैर गुजराती नव नियुक्त अधिकारी मिले. बस फिर क्या था अच्छी बातचीत होने लगी. लेकिन खाना खाने हम सभी अलग-अलग ही जाते थे. हम सब यही दुआ मांग रहे थे कि हमारी पोस्टिंग अहमदाबाद में ही हो जाये. लेकिन कहावत है ‘मैन प्रोपोजेस, गोड डिस्पोजेस.’ दस बारह दिनों की प्रतीक्षा के बाद हम सबके पोस्टिंग ऑर्डर्स जारी हो गए.
यहाँ बिना समय गंवाए मैं अपने ‘सींग तेल’ वाले विषय पर आ जाता हूँ. मेरे १०/१२ दिनों के अहमदाबाद प्रवास के दौरान मुझे खाने-पीने की बहुत ज्यादा दिक्कत हुई. सबसे पहले मैं यह साफ़ कर देना चाहता हूँ कि गुजरात में खाना उपलब्ध कराने वाले रेस्टोरेंट को लॉज कहते हैं, जबकि उत्तर भारत में लॉज उसे कहते हैं जहाँ यात्री अल्प समय के लिए ठहरते हैं और चाय की दुकान को गुजरात में होटल बोलते हैं. इस बीच मैं दुकानों के साइन बोर्ड्स को अक्षर जोड़ जोड़ कर पढ़ने की कोशिश करता रहा और मुझे गुजराती भाषा में लिखे साइन बोर्ड्स पढ़ने में आने लगे. अब मैं अपने खाने-पीने की समस्या से आपको अवगत करता हूँ. शुरू के कुछ दिनों तक मैं बहुत परेशान रहा. जिस किसी भी लॉज में मैं लंच या डिनर के लिए जाता वहां से उलटे पैर वापस आ जाता क्योंकि प्रत्येक लॉज के बाहर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा बोर्ड टेंगा होता था “आ लॉज माँ सींग तेल वपराय छे.” इस वाक्य में ‘सींग तेल’ पढ़ कर ही मैं भाग खड़ा होता था और किसी दुकान पर दूध/चाय और ब्रेड बटर खा कर गुजरा कर लेता था. गुजरातियों के प्रति मेरा दिल अजीब सी घृणा से भर गया था. उत्तर भारत में सींग का मतलब गाय, भैंस या अन्य जानवरों के सींग. मैं सोचता था कि मांस तो हम भी खाते हैं लेकिन उन जानवरों के सींग से तेल निकाल कर उसमें खाना तो हम नहीं पकाते. इस भय से किसी से पूछने की हिम्मत भी नहीं करता था कि कहीं मेरा मजाक ना बन जाये. लेकिन अन्दर ही अन्दर बहुत परेशान था.
कुछ दिनों के बाद मैंने अपने एक गुजराती वरिष्ठ के सामने अपने उद्गार व्यक्त कर ही दिए. मैंने कहा “सर, हमने तो सुना था कि गुजराती लोग शाकाहारी होते हैं लेकिन यहाँ हर लॉज में तो जानवरों के सींगों के तेल में खाना बनाया जाता है.” मेरे वरिष्ठ ठहाका लगा कर हँसे पड़े और मुझसे बोले “अरे पागल, सींग का मतलब मूंगफली. गुजराती भाषा में मूंगफली को ही सींग कहते हैं. तुम जिस सींग की बात कर रहे हो गुजराती में उसे शिंगडा कहा जाता है. यहाँ भोजन बनाने में मूंगफली के तेल का प्रयोग किया जाता है. इसीलिए हर लॉज पर उपरोक्त प्रकार का सूचना पट्ट लगा होता है.” मैं अपनी अनभिज्ञता पर काफी शर्मिंदा हुआ. इसके बाद तो अगले तीन महीनों के भीतर-भीतर मैंने गुजराती भाषा को बोलना, पढ़ना और लिखना सीख लिया. आज भी जब सींग तेल वाली घटना की याद आती है तो गुजरात, वहां के लोग, गुजराती संस्कृति, गुजराती खाना और वहां बिताया हुआ समय मेरी आँखों के सामने तैरने लगता है.