लघु कथा: विवशता — पालजीभाई राठोड़ ‘प्रेम’

जीवन में विपदाएं आती रहती है। विपदाएं मनुष्यको विवशता में जकड़ लेती है। विवशता के आगे हाथ पे हाथ धरे बैठाना नहीं है।विवशता के आगे प्रयास करना हम सभी का कर्तव्य है।
प्रीति और प्रणव एक ही गांव में रहते थे।साथ में खेले कूदे पढें बड़े हुए। कॉलेज भी साथ में जाते थे। साथ में घूमते फिरते थे।
यह देखकर प्रणव और प्रीति के माता पिता ने तय किया कि दोनों का संबंध किया जाए। दोनों एक दूसरे को चाहते हैं। अच्छे मुहूर्त में दोनों की मंगनी भी की गई।
एक बार प्रीति एक्टिवा लेकर कॉलेज जा रही थी।उसका एक्सीडेंट हुआ और दोनों पांव में गहरी चोट आई। बहुत ईजा हुई। प्रीति विवस हो गई। प्रिति अब चल नहीं सकती थी।
एक मास के बाद तो उस का ब्याह करना था। प्रीति के माता पिता भी विवश हो गये। सोचने लगे क्या करें?हम ऐसी हालत में प्रीति के ब्याह कैसे करें हम प्रीति का बोझ प्रणव पर नहीं डाल सकते। बहुत सोच कर उसने मंगनी फोक करने का विचार किया।प्रीति जब अच्छी होगी तब उसके बारे में हम सोचेंगे।
प्रीति के मातापिता प्रणव के घर आया और कहा;’ प्रीति दोनों पांव व चल नहीं सकती।हम प्रणव पर ये बोझ नहीं डालना चाहते। हम चाहते हैं मंगनी फोक किये जाए।’
घर में प्रणव यह सब सुन रहा था उसने कहा;’क्या प्रीति मेरे लिए बोझ बन गई है।यदि हमारी शादी के बाद एक्सीडेंट होता तो क्या हमें प्रीति को छोड़ देता? ऐसा विचार भी आपको क्यों आया!’
प्रीति के मातापिता ने कहा; ‘बेटा, हम विवश हो गए थे।
प्रणव प्रीति को अच्छे ऑर्थोपेडिक डॉक्टर के पास ले गया। दोनों पांव का ऑपरेशन किया। अब प्रीति धीरे धीरे दोनों पाव चलने लायक हो गई और फिर इन दोनों की शादी भी की गई।
दोनों खुश होकर रहने लगे।
दोस्तों विवशता को विजय में बदला जा सकता है। हम और हमारे आसपास के लोग जागरुक हो सहायता से हाथ बढ़ाएं।
“सुख दुःख आते देखिए यह जीवन के रंग,
कट जाता है पल बुरा अपने जब हो संग।”
पालजीभाई राठोड़ ‘प्रेम’ सुरेंद्रनगर गुजरात