पर्यावरण संरक्षण – गद्य लेख — प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या

आज मानव सभ्यता विज्ञान और प्रौद्योगिकी की ऊँचाइयों को छू रहे हैं, लेकिन इस प्रगति की दौड़ में हमने जिस अनमोल धरोहर की उपेक्षा की है, वह है – हमारा पर्यावरण। वनों की कटाई, बढ़ता प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता का ह्रास – ये सब इस बात के संकेत हैं कि हम प्रकृति के साथ असंतुलन की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसे में “पर्यावरण संरक्षण” केवल एक सामाजिक विषय नहीं, बल्कि मानवीय अस्तित्व का आधार बन चुका है।
प्रकृति के मूल तत्वों जैसे वायु, जल, भूमि, वन, जीव-जंतु आदि को संरक्षित रखना और उन्हें मानवजनित हानियों से बचाना। जब पर्यावरण संतुलित होता है, तभी जीवन चक्र सुचारू रूप से चलता है। लेकिन आज शहरीकरण, औद्योगीकरण और उपभोक्तावाद की होड़ में हमने पर्यावरण को गहराई से प्रभावित किया है।इस संकट से उबरने के लिए हमें व्यक्तिगत, सामाजिक और सरकारी स्तर पर प्रयास करने होंगे। वृक्षारोपण, जल संरक्षण, कचरा प्रबंधन, हरित ऊर्जा का उपयोग, और जन-जागरूकता जैसे उपायों को अपनाना नितांत आवश्यक है। विद्यालयों में पर्यावरण शिक्षा को अनिवार्य किया जाना चाहिए ताकि भावी पीढ़ी इस दिशा में संवेदनशील बन सके।
पर्यावरण संरक्षण कोई एक दिन का कार्य नहीं है, यह निरंतर प्रयास की माँग करता है। हम जितनी जल्दी यह समझ जाएँ कि प्रकृति को नष्ट कर हम स्वयं अपने लिए खतरा खड़ा कर रहे हैं, उतना ही बेहतर होगा।
पृथ्वी हमारी माता है – इसकी रक्षा हमारा धर्म है।अब समय आ गया है कि हम विकास की परिभाषा को ‘सतत विकास’ के रूप में समझें और प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर चलें। यही मानवता की सच्ची सेवा होगी।
प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या