रण की सार्थकता — डॉ इंदु भार्गव

‘रण’ का तात्पर्य केवल युद्धभूमि या शस्त्रों की टकराहट भर नहीं होता, बल्कि यह जीवन के संघर्षों, आत्मबलिदान, धर्म की रक्षा तथा न्याय की स्थापना का प्रतीक भी है। जब भी अन्याय, अधर्म, अत्याचार और असत्य समाज में पनपते हैं, तब ‘रण’ की आवश्यकता महसूस होती है — एक ऐसा रण जो केवल बाहरी शत्रुओं से नहीं, बल्कि भीतर के भय, स्वार्थ और मोह से भी लड़ा जाता है!!
महाभारत में कुरुक्षेत्र का रण केवल सिंहासन की लड़ाई नहीं थी, वह धर्म और अधर्म के बीच की टकराहट थी। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को रणभूमि में ‘कर्म’ और ‘धर्म’ का ज्ञान दिया, जिससे स्पष्ट होता है कि रण की सार्थकता तभी है जब वह सच्चाई, न्याय और सद्भाव के लिए लड़ा जाए!!
आज के समय में भी, जब समाज में नैतिकता, ईमानदारी और सच्चाई को चुनौती दी जा रही है, तब हर व्यक्ति के जीवन में एक ‘आंतरिक रण’ चलता है। यह संघर्ष अपने कर्तव्यों, मूल्यों और आत्मा की आवाज़ के साथ होता है। इस प्रकार, ‘रण’ की सार्थकता केवल अस्त्र-शस्त्र तक सीमित नहीं, बल्कि वह सत्य, नीति, और सद्भाव की स्थापना में है!!
निष्कर्षतः,
रण तभी सार्थक है जब उसका उद्देश्य न्याय की विजय और मानवता की रक्षा हो। ऐसा रण न केवल विजय दिलाता है, बल्कि आत्मा को शांति और समाज को दिशा देता है!!
डॉ इंदु भार्गव